भारतीय देहाती खेलों को लोग भूलते जा रहे हैं। गुल्ली डंडा एक समय में काफी लोकप्रिय रहा है। प्रख्यात कहानीकार मुंशी प्रेमचंद ने इस खेल पर एक कालजयी रचना गुल्ली डंडा लिखी जो काफी सराही गई। अब इस शानदार खेल को पाश्चात्य खेलों ने निगल लिया है। हालांकि कहीं कहीं यह दुर्लभ होता जा रहा खेल नजर आ जाता है।
आजकल के तमाम बच्चे इस खेल के बारे में मैं जानते ही नहीं होंगे। पब जी में मस्त बच्चों को हम क्या इन खेलों के बारे में जो कि स्वदेशी हैं उनसे अवगत करा सकते हैं। तो आइये आज की पीढी को भारत के इस देशी खेल से परिचय कराते हैं।
इस खेल की बड़ी खासियत है कि इसमें खेल सामग्री के नाम पर कुछ भी खर्चे वाली बात नहीं है, बस इसमें केवल एक 2-3 फीट लकड़ी का डंडा और एक गिल्ली जिसके दोनों किनारों को तेज कर दिया जाता है ताकी उन पर डंडा से मारने पर गिल्ली उछल पड़े। और ये भी एक मजेदार बात है कि इसमें खिलाड़ियों की संख्या कितनी भी हो सकती है, 2 , 4, 10 या इससे भी अधिक।
खेल के नियम भी बिल्कुल आसान है, खेल शुरू करने से पहले जमीन पर एक 2 इंच गहरा और 4 इंच लम्बा गढ़ा खोदा जाता है, एक खिलाड़ी उस गड्ढ़े पर गिल्ली को टिका कर जोर से डंडा के द्वारा दुर फेंकता है, और दुसरे खिलाड़ी उसे लपकने के लिए तैयार रहते हैं, अगर गिल्ली लपक ली जाती है तो वो खिलाड़ी बाहर हो जाता है और यदि गिल्ली जमीन पर गिर जाती है तो गिल्ली उठा कर डंडे को मारा जाता है जो कि गड्ढ़े के पार उस खिलाड़ी द्वारा रख दिया जाता है, अगर दूसरी टीम ने डंडे को निशाना बना दिया तो भी खिलाड़ी बाहर हो जाता है और अगर नही तो अब वो खिलाड़ी अपना डंडा लेकर गिल्ली को उछालते हुए जोर से मारता है और जितनी दुर गिल्ली गिरती है उतना ही मजा आता है। उस दूरी से गड्ढ़े की दुरी डंडे द्वारा मापी जाती है और उतना ही अंक उस टीम को मिलती है इस प्रकार से ये खेल खेला जाता है और हारने वाली टीम को शर्त के अनुसार मुक्के या धौल जमाये जाते हैं, इसमे कोई भी हार पराजय की भावना नहीं होती है बिल्कुल ही खेल भावना के खेला जाने वाला ये खेल आज लगभग लुप्त हो रहा है।