उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल क्षेत्र में दीवाली के 11 दिन बाद इगास दीपावली मनाई जाती है, जिसे स्थानीय भाषा में इगास बग्वाल कहा जाता है। इसमें दीयों और पटाखों की जगह पर भैला खेला जाता है, जो कि एक पारंपरिक रिवाज है। इस पर्व को मनाने के पीछे कई पौराणिक मान्यताएं और कहानियां हैं।
उनमें से एक मान्यता यह है कि भगवान राम के बनवास के बाद अयोध्या पहुंचने पर लोगों ने दिये जलाकर उनका स्वागत किया और उसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया, लेकिन कहा जाता है कि गढ़वाल क्षेत्र में भगवान राम के पहुंचने की खबर दीपवाली के ग्यारह दिन बाद मिली और इसीलिए ग्रामीणों ने अपनी खुशी जाहिर करते हुए ग्यारह दिन बाद दीपावली का त्योहार मनाया।
वहीं दंत कथाओं के अनुसार चंबा का एक व्यक्ति भैला बनाने के लिए लकड़ी लेने जगंल गया था और वो उस दिन वापसा नहीं आया। काफी खोजबीन के बाद भी उस व्यक्ति का कहीं पता नहीं लगा तो ग्रामीणों ने दीपावली नहीं मनाई, लेकिन ग्यारह दिन बाद जब वो व्यक्ति वापस लौटा तो ग्रामीणों ने दीपावली मनाई और भैला खेला और तब से इगास बग्वाल के दिन भैला खेलने की परंपरा शुरू हुई।
इस दिन टिहरी गढ़वाल में इगास बग्वाल के दिन लकड़ी और बेल से भैला बनाया जाता है और स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैला जलाकर उसे घुमाया जाता है और ढोल नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य किया जाता है.जो लोग दीपावली में घर नहीं आ पाते हैं, वो इगास बग्वाल के त्यौहार में घर पहुंचते हैं और दीपावली का त्योहार मनाते हैं।
अपनी अलग संस्कृति और परंपराओं से जुड़े रहने के लिए त्यौहारों का विशेष महत्व होता है। ईगास भी उन्हीं सांस्कृतिक विरासतों को बनाए रखने का एक माध्यम है। आने वाली पीढ़ी अपने पौराणिक और धार्मिक आस्था को विस्मृत न कर जाये इसलिए ईगास सरीखे पर्व मनाये जाते रहें।