
न चाहते हुए भी लिखना ,मजबूरी नहीं बल्कि जरूरी काम है. हमारे प्रधानमंत्री जी भले ही दुनियादारी में उलझे हों लेकिन हमेशा ये प्रकट करने का कोई अवसर नहीं गंवाते कि वे हिन्दुओं के प्रधानमंत्री हैं .जबकि वे देश के प्रधानमंत्री हैं और सबका साथ ,सबका विकास ‘ उनका मूलमंत्र है .वे जानबूझकर अपने चुनाव अभियान के दौरान पूजा स्थलों पर जाते हैं,माथे पर त्रिपुण्ड लगाते हैं और वेशभूषा भी तब्दील करते रहते हैं .बीते सात साल में उन्होंने देश के किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय के पूजास्थल की और रुख नहीं किया .
प्रधानमंत्री जी बीते रोज काशी में थे. काशी उनका चुनाव क्षेत्र है. वे काशी कभी भी जा सकते हैं, उन्हें काशी में बिना चुनावी रैलियों के भी जाना चाहिए .लेकिन वे काशी में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को उल्हाना देने जाते हैं तो हैरानी होती है. उन्होंने महिलाओं की तरह शिकायत की की समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने उनकी मृत्यु तक की कामना की ,जबकि बेचारे अखिलेश ने सिर्फ इतना कहा था कि-‘प्रधानमंत्री वहां दो-तीन महीने रहें, अच्छी बात है। वह जगह रहने वाली है। आखिरी समय पर वहीं रहा जाता है, बनारस में…।’इस कथन में किसी की मृत्यु की कामना का भाव कहाँ छिपा है ? लेकिन जब लड़ाई में कोई स्तर तय ही न हो तब कुछ भी अर्थ निकाला जाता है .
काशी वैसे भी मोक्ष की नगरी है. बाबा विश्नाथ की नगरी है. वहां सब जाते हैं मोक्ष की कामना को लेकर .कबीर वहीं कि थे ,लेकिन वे आज कि नेताओं से एकदम अलग थे .वे कहते थे ‘जब काशी में ही मरना है तब राम का निहोरा क्या करना ‘.वैसे भी काशी वाले राम से ज्यादा शिव कि आराधक हैं .शिव की आराधना करने वाले को राम अपने आप शरण देते हैं .अखिलेश भी मोदी जी की तरह शिव कि आराधक हैं .वे शिवद्रोही नहीं हैं .चुनाव लड़ रहा कोई भी आदमी शिवद्रोही नहीं है .शिव से किसी का द्रोह हो ही नहीं सकता .शिव तो सबके हैं ,
मोदी जी गुजरात छोड़ काशी से चुनाव लड़ने आये तब उन्होंने कहा था कि उन्हें गंगा माँ ने बुलाया है ,अब वे कहते हैं कि मैं यह जान गया कि मेरी मृत्यु तक न काशी के लोग मुझे छोड़ेंगे और न मैं उनकी सेवा करना छोड़ूंगा। बाबा विश्वनाथ के भक्तों की सेवा करते-करते अगर मैं चला जाऊं, तो इससे बड़ा सुख और क्या होगा? उन घोर परिवारवादियों को क्या पता कि यह जिंदा शहर बनारस है। यह शहर मुक्ति के रास्ते खोलता है। बनारस अब देश के लिए गरीबी और अपराध से मुक्ति के द्वार खोलेगा’।
काशी के बारे में मुमकिन है कि आप और हम मोदी जी से कम जानते हों ,लेकिन ये सबको पता है कि काशी आज से नहीं है और देश में गरीबी तथा अपराध भी काशी जितने ही पुराने हैं इसलिए देश को इनसे मुक्ति का द्वार काशी से ही खुलने का सवाल ही नहीं होता .खुलना होता तो अब तक खुल चुका होता .मोदी जी से पहले काशी का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग भी काशी को उतना ही प्रेम करते थे जितना की मोदी जी करते हैं ,लेकिन किसी ने भी काशी को क़्वेटो बनाने का दुस्साहस नहीं किया .कोई बाबा विश्वनाथ की काशी को क़्वेटो बनाने का दुस्साहस कर भी कैसे कर सकता है ,काशी तो अनादिकाल से काशी थी,काशी है ,उसे क़्वेटो बनाने से किसी को मोक्ष नहीं मिलने वाला .
कोई मेरे प्रिय स्थल के साथ छेड़छाड़ करे तो मेरा मन खिन्न होगा ही. काशी के स्वरूप से छेड़छाड़ की वजह से बाबा विश्वनाथ का मन भी खिन्न होगा ही ,लेकिन वे ठहरे आशुतोष ,औघड़ ,किसी से कुछ कहते ही नहीं हैं .लेकिन जनता तो शिव नहीं है .जनता तो प्रतिक्रिया देती है ,और विधानसभा कि चुनावों में जनता की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा सभी को है .दस दिन बाद पता चलेगा की उत्तर प्रदेश की जनता को काशी का क़्वेटो होना अच्छा लगा या नहीं ? क्योंकि मोक्ष तो काशी में मिलता है क़्वेटो में नहीं .
इस बार अच्छा ये है कि विधानसभा कि चुनाव शिवरात्रि के मौके पर हो रहे हैं .फाल्गुन भी शुरू हो चुका है. पलाश भी फूलने लगा है,टेसू भी चटखने लगा है .इसलिए चुनाव में भी सातों रंग दिखाई दे रहे हैं .संयोग से इस बार चुनाव में पहले कि मुकाबले अपेक्षाकृत ज्यादा शांति है .जो हो रहा है सो अच्छा हो रहा है,आगे भी अच्छा ही होगा ,बाशर्त की प्रधानमंत्री जी भी अपने आपको बदलें .काशी के प्रतिनिधि हैं तो कुछ-कुछ कबीर की तरह नजर आएं .किसी ख़ास रंग,किसी ख़ास जुबान और किसी ख़ास कौम कि प्रति अपने पूर्वाग्रह छोड़ दें क्योंकि पूरा देश सतरंगा है. यहां रहने वाले सभी भारतीय हैं उन्हें खांचों में विभक्त करने की जरूरत नहीं है ,और हाँ एक कहावत भी ध्यान रखने की है की’ कौओं कि कोसने से ढोर नहीं मरते ,भले ही बिल्ली के भाग्य से छींका टूटता हो .
@ राकेश अचल