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ओवैसी पर हमला भी गोंडसे संस्कृति? भयमुक्त सूबे पर वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल की टिप्पणी

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

आप माने या न माने लेकिन न तो विचार मरते हैं और न संस्कृति.ये दोनों समय के साथ या तो अपना रूप बदलते हैं या फिर और सुदृढ़ हो जाते हैं. हाल ही में उत्तर प्रदेश में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के सुप्रीमो असदुद्दीन ओवैसी पर हुआ हमला इसी बात की ताईद करता है .बीते 76 साल में हम जहां से चले थे वहीं खड़े नजर आते हैं.आज भी हमारे यहां वैचारिक विरोध का मुकाबला करने के लिए गोली का सहारा लेने वाली गोंड़से संस्कृति जिन्दा है .

औवेसी आज की राजनीति में एक अलग विचारधारा के साथ आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.उनकी विचारधारा महात्मा गांधी की विचारधारा नहीं है .वे उग्र हैं.वे खुलकर अपने सम्प्रदाय की हिमायत करते हैं ,लेकिन इसका अर्थ ये बिलकुल नहीं है की उनकी जान लेने की कोशिश की जाये .गनीमत है कि गोली औवेसी का कुछ बिगाड़ नहीं पायी .उत्तर प्रदेश में इस वारदात को एक सियासी स्टंट भी माना जा रहा है. मुमकिन है कि इसमें हकीकत भी हो लेकिन वारदात तो वारदात है और इसे वारदात की ही तरह लिया जाना चाहिए .

दावा किया जाता है कि उत्तरप्रदेश के योगी राज में गुंडे दुम दबाकर या तो सूबे से भाग गए हैं या फिर अपने-अपने बिलों में जा छिपे हैं ,लेकिन मेरठ की इस वारदात से ये दोनों ही दावे गलत साबित हो गए हैं यानि फर्जी मुठभेड़ों के बावजूद लोगों ने अपने तमंचे रखे नहीं हैं,वे इनका इस्तेमाल आज भी कर रहे हैं .गोली चलाने वाला आरोपी सचिन ओवैसी की लगभग हर स्पीच को फॉलो करता है. पुलिस अधिकारियों के मुताबिक दोनों आरोपी ओवैसी की मेरठ की सभा में भी मौजूद थे.आरोपी सचिन ने पूछताछ में बताया की वह ओवैसी और उसके भाई के भाषणों से बेहद नाराज था. दोनों आरोपियों को लगता है की ओवैसी भाई उनकी आस्था के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं. दोनों वैचारिक तौर पर बेहद कट्टर हैं.

सचिन किस राजनीतिक फैक्ट्री का उत्पाद हैं ये तो जाहिर नहीं हुआ लेकिन ये तय है कि वे उसी फैक्ट्री के उत्पाद होंगे जिसके उत्पाद नाथूराम गोंड़से थे .लेकिन बिना प्रमाण दावे के साथ कुछ कहा नहीं जा सकता .सवाल ये ही है कि क्या उत्तरप्रदेश के चुनाव वैचारिक आधार पर लड़े जा रहे हैं ,या विकास इन चुनावों का आधार है ? विकास चुनावों का आधार होता तो मुमकिन है कि यहां के लोग पिस्तौल का सहारा न लेते .उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव चार अन्य राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों से तनिक अलग हैं .अलग क्यों हैं,ये आप सब जानते ही हैं ,इसलिए तफ्सील में नहीं जा रहा .

उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव केंद्र की सत्ता के लिए सीढ़ी की तरह माने जाते यहीं.संयोग से इस बार भारत के किसान इस सीढ़ी को खींचने में जुटे हैं .भारतीय किसान यूनियन उत्तर प्रदेश में सीधे तो चुनाव नहीं लड़ रही लेकिन उसने किसानों से अपील जरूर की है कि वे वादाखिलाफी करने वालों को सबक जरूर सिखाएं .वादाखिलाफी करने वाला कौन है ? ये किसान जानते हैं .किसानों को पता है कि उनके एक साल से ज्यादा लम्बे संघर्ष के बाद कौन झुका था और फिर किसने अपना कौल नहीं निभाया .
अजब संयोग है कि उत्तर प्रदेश में डबल इंजन से चलने वाली सरकार है और इसके बाद भी इन विधानसभा चुनावों में डबल इंजन को हांफना पड़ रहा है.यानि डबल इंजिन लगा देने भर से किसी रेल की रफ्तार बढ़ाई नहीं जा सकती . केंद्र और उत्तरप्रदेश को उत्तरदायी सरकार देने वाली भाजपा को बंगाल से ज्यादा मेहनत उत्तर प्रदेश में करना पड़ रही है. भाजपा उत्तराखंड पंजाब ,गोवा और मणिपुर के बजाय केवल उत्तरप्रदेश में अपनी पूरी ताकत झौंक रही है .भाजपा को पता है कि पंजाब में उसके पास हासिल करने के लिए कुछ है नहीं ,क्योंकि किसान आंदोलन के ऐपिक सेंटर पंजाब ही था उत्तराखंड में सब कुछ भगवान भरोसे हैं ,यहां के मुख्यमंत्री को बदलकर भाजपा पहले ही आधा चुनाव हार चुकी है .गोवा और मणिपुर के चुनाव भाजपा की केंद्रीय राजनीति पार बहुत ज्यादा असर नहीं डालते .
उत्तर प्रदेश भारतीय राजनीति में आजादी के पहले इसे ही महत्वपूर्ण रहा है .देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वलए उत्तर प्रदेश में तीन दशक से राजनीतिक उठापटक चल रही है. उत्तर प्रदेश खोने के बाद कांग्रेस को केंद्र की सत्ता से भी हाथ धोना पड़ा हालांकि उत्तर प्रदेश में कमजोर होने के बावजूद कांग्रेस ने केंद्र में पंद्रह साल राज किया .बिना उत्तरप्रदेश के भी पीव्ही नरसिम्हाराव और डॉ मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री बने .कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश चुनावों को लेकर इतना भय कभी नहीं दिखाया जितना कि भाजपा दिखा रही है ,वजह सिर्फ ये है कि बीते सात साल में भाजपा ने उत्तर प्रदेश से जो लिया था बदले में उसे उतना दिया नहीं ,और जो दिया उससे उत्तर प्रदेश खुश नहीं है .

पांच साल के योगीराज और इसी बीच उत्तर प्रदेश में राम मंदिर के शिलान्यास के बावजूद भाजपा परेशान है . भाजपा इन पांच साल में न समाजवादियों को नेस्तनाबूद कर पायी और न बहुजन समाज पार्टी को .कांग्रेस भी यहां अपने पांवों पर खड़े होने की कोशिश करती दिखाई दे रही है .उत्तर प्रदेश में कांग्रेस भले ही भाजपा का विकल्प बनती नजर न आये लेकिन हकीकत ये है कि बीते पांच साल में कांग्रेस ने ही उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा हस्तक्षेप कर राजनीति को गरमाये रखा है .विचार के हिसाब से कांग्रेस यहां आज भी जीवित है .इन पांच साल में उत्तर प्रदेश में यदि औवेसी का भी प्रवेश हुआ है तो इसके लिए भाजपा ही उत्तरदायी है और इसका खमियाजा भाजपा को भुगतना पड़ेगा .भाजपा जब तक गोडसे की संस्कृति को संरक्षण देती रहेगी,उसका महिमा मंडन करती रहेगी तब तक उसे परेशानियों का समाना करना पड़ेगा .केवल दो-दो इंजिन लगाने से भाजपा की रेल की रफ्तार बढ़ने वाली नहीं है .
उत्तर प्रदेश के चुनाव बिना गोली और गाली के हों इसकी जिम्मेदारी केंचुआ की है ,सत्तारूढ़ भाजपा की है और बाकी के राजनीतिक नितिक दलों को भी इस जिम्मेदारी से बचना नहीं चाहिए. औवेसी को भी अपनी जुबान को काबू में रखना चाहिए ताकि सचिन जैसे लड़के हथियार उठाने के लिए मजबूर न हों .विचारों का मुकाबला विचारों से ही होगा ,गोली या गाली से नहीं .
@ राकेश अचल

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