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गोविंद बल्लभ पंत :काशीपुर में कुंजबिहारी लाल का पहला मुकदमा लड़ा, हिंदी प्रेम सभा के संस्थापक पंत जी मौहल्ला खालसा में रहे, जानिये कुछ खास बातें

काशीपुर । ‘कुंजबिहारी लाल’ पहले शख्स थे जिनका मुकदमा काशीपुर में गोविंद बल्लभ पंत ने लड़ा था। और इस मुकदमे की फीस में पंत जी को 5 रूपये मिले थे।

गोविंद बल्लभ पंत का जन्म 10 सितम्बर, 1887 उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा ज़िले के खूंट नामक गाँव में हुआ था। उनके के पिता का नाम  ‘मनोरथ पन्त’ था। मनोरथ पंत गोविन्द के जन्म से तीन साल के भीतर अपनी पत्नी के साथ पौड़ी गढ़वाल चले गये थे।

गोविन्द ने 10 वर्ष की आयु तक शिक्षा घर पर ही प्राप्त की। 1897 में गोविन्द को स्थानीय ‘रामजे कॉलेज’ में प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया। 1899 में 12 साल की आयु में उनका विवाह ‘पं. बालादत्त जोशी’ की कन्या ‘गंगा देवी’ से हो गया, उस समय वह कक्षा सात में थे। गोविन्द ने लोअर मिडिल की परीक्षा संस्कृत, गणित, अंग्रेज़ी विषयों में विशेष योग्यता के साथ प्रथम श्रेणी में पास की। गोविन्द इण्टर की परीक्षा पास करने तक यहीं पर रहे। इसके बाद में उन्होने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और बी.ए. में उन्होने गणित, राजनीति और अंग्रेज़ी साहित्य विषयों को चुना।  इलाहाबाद में गोविन्द  को कई महापुरुषों का सान्निध्य मिला  और साथ ही जागरुक, व्यापक और राजनीतिक चेतना से भरपूर वातावरण भी मिला।

1909 में गोविन्द बल्लभ पंत को क़ानून की परीक्षा में विश्वविद्यालय में सबसे पहले स्थान पर आने पर ‘लम्सडैन’ स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।

1910 में गोविन्द बल्लभ पंत ने अल्मोड़ा में वकालत शुरू की। अल्मोड़ा के बाद पंत जी ने कुछ महीने रानीखेत में वकालत की और इसके बाद फिर पंत जी वहाँ से काशीपुर आ गये। उन दिनों काशीपुर के मुक़दमें एस.डी.एम. की कोर्ट में पेश हुआ करते थे। यह अदालत ग्रीष्म काल में 6 महीने नैनीताल व सर्दियों के 6 महीने काशीपुर में रहती थी। इस प्रकार पंत जी का काशीपुर के बाद नैनीताल से सम्बन्ध जुड़ा गया ।

1912 से 1913 में पंतजी काशीपुर आये उस समय उनके पिता जी ‘रेवेन्यू कलक्टर’ थे।1909 में पंतजी के पहले बेटे की बीमारी से मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद पत्नी गंगादेवी की भी मृत्यु हो गयी। उस समय उनकी आयु 23 साल की थी। वे अपनी पत्नी गंगादेवी की मृत्यु के बाद शांत और उदास रहने लगे तथा समस्त समय क़ानून व राजनीति को देने लगे।

परिवार के दबाव देने पर 1912 में पंत जी का दूसरा विवाह अल्मोड़ा में हुआ। उसके बाद पंतजी काशीपुर आये। पंत जी काशीपुर में सबसे पहले ‘नजकरी’ में नमक वालों की कोठी में एक वर्ष तक रहे।

1913 में पंतजी काशीपुर के मौहल्ला खालसा में 3-4 वर्ष तक रहे। अभी नये मकान में आये एक साल भी नहीं हुआ था कि उनके पिता मनोरथ पंत का देहान्त हो गया। इसी समय के दौरान उन्हे एक पुत्र की प्राप्ति हुई पर उसकी भी कुछ महीनों बाद मृत्यु हो गयी। बच्चे के बाद पत्नी भी 1914 में स्वर्ग सिधार गई।

1916 में पंत जी ‘राजकुमार चौबे’ की बैठक में चले गये। चौबे जी पंत जी के घनिष्ठ मित्र थे। उनके द्वारा दबाव डालने पर वे दोबारा विवाह के लिए राजी हो गए तथा काशीपुर के ही श्री तारादत्त पाण्डे जी की पुत्री ‘कलादेवी’ से विवाह का लिया। उस समय पन्त जी की आयु 30 वर्ष की थी।

गोविन्द बल्लभ पंत जी का मुक़दमा लड़ने का ढंग निराला था, जो मुवक़्क़िल अपने मुक़दमों के बारे में सही जानकारी नहीं देते थे, पंत जी उनका मुक़दमा ही नहीं लेते थे। काशीपुर में एक बार गोविन्द बल्लभ पंत जी धोती, कुर्ता तथा गाँधी टोपी पहनकर कोर्ट चले गये। वहां पर अंग्रेज़ मजिस्ट्रेट ने उनके उस पहनावे पर आपत्ति की। पन्त जी की वकालत की काशीपुर में धाक थी और उनकी आय 500 रुपए मासिक से भी अधिक हो गई। पंत जी के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमाऊँ के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। अंग्रेज़ शासकों ने काशीपुर नगर को काली सूची में शामिल कर लिया। पंतजी के नेतृत्व के कारण अंग्रेज़ काशीपुर को ”गोविन्दगढ़“ कहती थी।

1914 में काशीपुर में ‘प्रेमसभा’ की स्थापना पंत जी के प्रयासो से ही हुई। ब्रिटिश शासकों ने समझा कि समाज सुधार के नाम पर यहाँ पर आतंकवादी कार्यो को प्रोत्साहन दिया जाता है। इसका परिणाम यह रहा कि इस सभा को हटाने के अनेक प्रयस किये गये पर पंत जी के प्रयासो से वे सफल नहीं हो पाये।

1914 में पंत जी के प्रयासो से ही ‘उदयराज हिन्दू हाईस्कूल’ की स्थापना हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने उस स्कूल के विरुद्ध डिग्री दायर कर नीलामी के आदेश जारी कर दिये। जब पंत जी को इस बात का पता चला तो उन्होंनें चन्दा मांगकर इसको पूरा किया।

1916 में पंत जी काशीपुर की ‘नोटीफाइड ऐरिया कमेटी’ में शामिल हो गये। इसके बाद में वे कमेटी की ‘शिक्षा समिति’ के अध्यक्ष बने। कुमायूं में सबसे पहले निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय भी पंत जी को ही जाता है।

गोविन्द बल्लभ पंतजी ने कुमायूं में ‘राष्ट्रीय आन्दोलन’ को ‘अंहिसा’ के आधार पर संगठित किया। शुरू से ही कुमाऊं के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व पंत जी के हाथों में रहा। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन का शुरुआत कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार और विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुआ। इसके बाद में धीरे-धीरे कांग्रेस द्वारा घोषित असहयोग आन्दोलन की लहर कुमायूं में छा गयी। 1926 के बाद यह कांग्रेस में मिल गयी।
दिसम्बर 1920 में ‘कुमाऊं परिषद’ का ‘वार्षिक अधिवेशन’ काशीपुर में हुआ। जहां 150 प्रतिनिधियों के ठहरने की व्यवस्था काशीपुर नरेश की कोठी में की गई। गोविन्द बल्लभ पंतजी ने बताया कि परिषद का उद्देश्य कुमाऊं कि समस्यों को दूर करना है न कि सरकार से संघर्ष करना।

23 जुलाई, 1928 को पन्त जी ‘नैनीताल ज़िला बोर्ड’ के चैयरमैन चुने गये। और वे 1920-21 में भी चैयरमैन रह चुके थे। गोविन्द बल्लभ पंत जी का राजनीतिक सिद्धान्त था कि अपने क्षेत्र की राजनीति की कभी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। 1929 में गांधी जी कोसानी से रामनगर होते हुए काशीपुर भी गये। काशीपुर में गांधी जी लाला नानकचन्द खत्री के बाग़ में ठहरे थे। पंत जी ने काशीपुर में एक चरखा संघ की विधिवत स्थापना की।

नवम्बर, 1934 में गोविन्द बल्लभ पंत ‘रुहेलखण्ड-कुमाऊं’ क्षेत्र से केन्द्रीय विधान सभा के लिए निर्विरोध चुने गये। 17 जुलाई, 1937 को गोविन्द बल्लभ पंत ‘संयुक्त प्रान्त’ के पहले मुख्यमंत्री बने जिसमें नारायण दत्त तिवारी संसदीय सचिव नियुक्त किये गये थे।

गोविन्द बल्लभ पन्त जी 1946 से दिसम्बर 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पंत जी को भूमि सुधारों में पर्याप्त रुचि थी। 21 मई, 1952 को जमींदारी उन्मूलन क़ानून को प्रभावी बनाया। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी विशाल योजना नैनीताल तराई को आबाद करने की थी। 

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