राजा के वजीर परेशान थे। साथ ही दुविधा में भी पड़े थे। कारण, वजीरों की कोई सुनवाई नहीं थी। राज्य की जनता वजीरों पर भरोसा करती आई थी। राज्य के प्रबंधन के तैनात राजकीय अधिकारी बेपरवाह हो गये थे। दरअसल अधिकारी सीधे राजा के सम्पर्क में हो गये। और सभी राजा के चहेते बन गये।
परिणामस्वरूप निरंकुश हो गये। अब जो अधिकारी सीधे राजा के मुंहलगे हों वह भला वजीरों को क्या समझेंगे।
वजीर बार बार गुहार लगाते।
हे! महाराज हमारी भी सुध लो।
राजा वजीरों की बात पर हल्के से मुस्करा भर देते थे। दूसरी तरफ अधिकारियों की पीठ थपथपा देते थे।
वजीरों की गुहार कौन सुनता? एक वजीर का हश्र देखकर बाकी वजीर भी मन मसोस कर रह जाते।
राजा बार बार यही कहता कि मेरे जैसा सुशासन कभी नहीं आया। वजीर बेचारे सुशासन का मतलब समझने की कोशिश करते और फिर खुद का अस्तित्व तलाशते।
हालांकि वजीरों की मजबूरी थी राजा की वाह वाह करना। वह वजीर बने भी तो राजा की वाहवाही करके ही बने थे। उधर अधिकारी थे कि राजा की जयजयकार में मशगूल थे।
इस सबके बीच राज्य की जनता के अपने दुख थे। हालात ऐसे थे कि अपना दुख लेकर वजीरों के पास जाते तो उससे पहले वजीर अपना दुख बयां कर देते।
राजा, वजीर और अधिकारी इस तिकड़ी के बीच जनता बेहाल थी लेकिन राज्य की प्रगति के आंकड़ों से राजा प्रसन्नता से फूले नहीं समा रहे थे।