@विनोद भगत
आज के दौर में जब समाज के हर क्षेत्र में नैतिकता की बुनियाद दरक रही है, पत्रकारिता भी इससे अछूती नहीं रही। पत्रकारों का वह गौरव, वह स्वाभिमान जो कभी सत्ता और तंत्र के सामने खड़े होकर सच का आइना दिखाने में गर्व महसूस करता था, अब धीरे-धीरे मिटता जा रहा है। कारण साफ है—दुकानदार प्रवृत्ति के लोग जब किसी पेशे में घुसते हैं, तो वह पेशा ‘सेवा’ से ‘व्यवसाय’ बन जाता है। यही पत्रकारिता के साथ हो रहा है।
कभी पत्रकारों को समाज का सजग प्रहरी कहा जाता था, जो सत्ता से सवाल करता था, आम आदमी की आवाज बनता था और व्यवस्था के केंद्र में ईमानदारी से खड़ा होता था। लेकिन अब तस्वीर बदल गई है। आजकल पत्रकारिता में ऐसे लोग बढ़ते जा रहे हैं जिनके लिए पत्रकार बनना न किसी मिशन का हिस्सा है, न ही समाज सेवा का माध्यम। उनके लिए यह सिर्फ एक साधन है—संपर्क बढ़ाने का, अधिकारियों की चापलूसी कर लाभ उठाने का, और मौका मिले तो ब्लैकमेलिंग तक करने का।
पहले के समय में जब कोई नया अधिकारी किसी जिले में पदभार संभालता था, तो वह अपने पूर्ववर्ती अधिकारी से चर्चा करता था। वह जानना चाहता था कि किस पत्रकार की क्या छवि है, कौन कितना निष्पक्ष और सजग है। पत्रकारों को उनकी साख के अनुसार श्रेणीबद्ध किया जाता था—‘ए’, ‘बी’, ‘सी’ ग्रेड में। ‘ए’ ग्रेड के पत्रकारों को बैठकों में बुलाया जाता, उनके सुझावों को महत्व दिया जाता और नीति-निर्धारण में उनके अनुभवों का लाभ लिया जाता।
पर अब हालात उलट हैं। अब अधिकारी भी अपनी गरिमा खो चुके हैं। उनका लक्ष्य अब ‘जनसेवा’ नहीं, ‘अर्थसेवा’ बन चुका है। परिणामस्वरूप जो पत्रकार अधिकारियों की चापलूसी करते हैं, जिनकी पत्रकारिता का मापदंड सच्चाई नहीं, सुविधा है—वे ही आज ‘प्रिय’ और ‘विश्वसनीय’ माने जाते हैं। ऐसे लोगों के लिए न खबरों की शुचिता कोई मायने रखती है और न समाज के सरोकार।
आज की पत्रकारिता में ऐसे अखबारनवीसों की भरमार हो गई है जो हर समय अधिकारियों के आसपास घूमते हैं, उनके आदेशों को पत्रकारिता का ब्रह्मवाक्य मानते हैं, और उनकी ‘चरण-वंदना’ को अपनी पहचान बना चुके हैं। वे न केवल पत्रकारिता की गरिमा को नुकसान पहुँचा रहे हैं, बल्कि इस पेशे के भीतर के ईमानदार और स्वाभिमानी पत्रकारों को हाशिए पर भी ढकेल रहे हैं।
लेकिन अब भी कुछ असल पत्रकार बचे हैं—जो न किसी के चरणों में झुकते हैं, न किसी की कृपा दृष्टि के मोहताज होते हैं। वे आज भी सच के साथ खड़े हैं, जोखिम उठाते हैं, मगर समझौता नहीं करते। दुर्भाग्यवश, ऐसे पत्रकारों को अब सम्मान नहीं, अवहेलना मिलती है—क्योंकि वे सत्ता के अनुकूल नहीं होते, अधिकारियों की ‘पीआर मशीनरी’ नहीं बनते।
यही कारण है कि आज अधिकारी भी समाज में अपनी गरिमा नहीं बचा पा रहे हैं। क्योंकि जब पत्रकार चापलूस होंगे, सवाल उठाना बंद कर देंगे, तो अधिकारी जवाबदेह कैसे रहेंगे? जब उनके चारों ओर हां में हां मिलाने वाले ‘पत्रकार’ होंगे, तो उन्हें नीति और नीयत की सुध कौन दिलाएगा?
अतः यह समय आत्ममंथन का है—सिर्फ पत्रकारों के लिए नहीं, बल्कि पूरे तंत्र के लिए। पत्रकारिता अगर समाज का दर्पण है, तो वह दर्पण आज धुंधला हो गया है। उसे साफ करने के लिए जरूरी है कि उसमें फिर से ईमानदारी, निर्भीकता और जनपक्षधरता का अक्स झलके। अन्यथा, पत्रकारिता भी बस एक ‘दुकान’ बनकर रह जाएगी—जहाँ ‘सच’ बिकेगा और ‘मूल्य’ सिर्फ आर्थिक होगा।
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