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गंभीर मंथन :जनता के सेवक या सत्ता के सेवक? प्रशासनिक तंत्र की असली तस्वीर

@विनोद भगत 

लोकतंत्र में शासन व्यवस्था की मूल आत्मा यह है कि “सरकार जनता के लिए, जनता द्वारा, और जनता की” होती है। संविधान ने स्पष्ट रूप से यह व्यवस्था दी है कि शासन में बैठे अधिकारी – चाहे वे सचिवालय के ऊंचे पदों पर हों या किसी छोटे सरकारी कार्यालय में – जनता के सेवक हैं, न कि शासक। परंतु जब हम ज़मीनी स्तर पर इस व्यवस्था को देखते हैं, तो यह सिद्धांत अक्सर केवल किताबों और भाषणों तक सीमित दिखाई देता है। और इसका कारण अधिकारी नहीं है। दरअसल देश के राजनेता  लोकतंत्र का ढिंढोरा पीटते हैं पर उसे अमल में लाते कम ही हैं। क्या कोई मंत्री या सासंद बिना किसी को बताये किसी भी क्षेत्र में अचानक से जाकर वहाँ की वास्तविकता से परिचित हो सकता है शायद नहीं। हमने अनेक ऐसे उदाहरण पढ़े हैं जिसमें ऐसा हुआ है पर शायद वह राजा महाराजाओं के दौर में संभव था। पर ऐसा आज भी हो सकता है लेकिन कोई ऐसा राजनेता है क्या? 

कहने को तो हर अधिकारी जनता का सेवक है, लेकिन व्यवहार में तस्वीर उलट दिखाई देती है। शासन-प्रशासन का एक बड़ा हिस्सा आज “सरकार” या “सत्ता” के सेवक की भूमिका में अधिक दिखाई देता है। अधिकारी का ध्यान जनता की समस्याओं से ज़्यादा उस मंत्री या उच्चाधिकारी को खुश करने में रहता है, जो उनके स्थानांतरण, पदोन्नति या पदस्थापन पर प्रभाव डाल सकता है।हमारे आस-पास ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जो इस सोच को पुष्ट करते हैं।

किसी शहर की सड़कों की हालत देख लीजिए – जगह-जगह गड्ढे, धूल, जाम और जलभराव आम दृश्य हैं। आम नागरिक इसी सड़क से रोज़ गुजरता है, लेकिन उसकी तकलीफ़ किसी को नहीं दिखती। शिकायतें होती हैं, ज्ञापन दिए जाते हैं, लेकिन कोई स्थायी समाधान नहीं निकलता।

पर जैसे ही खबर आती है कि उसी रास्ते से किसी मंत्री, सांसद या किसी वीआईपी व्यक्ति का काफिला गुज़रेगा, प्रशासन हरकत में आ जाता है। रातों-रात सड़क की मरम्मत, सफाई, रंगाई-पुताई और ट्रैफिक व्यवस्था चाक-चौबंद हो जाती है। जिस काम के लिए महीनों का समय चाहिए, वह कुछ घंटों में पूरा हो जाता है।

अब सवाल उठता है — क्या आम जनता की परेशानी की कीमत वीआईपी की यात्रा से कम है? जनता तो रोज़ उसी मार्ग से गुजरती है, लेकिन उसके लिए कोई व्यवस्था क्यों नहीं?

दरअसल, सरकारी तंत्र में एक मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति विकसित हो चुकी है — “ऊपर वाले को खुश रखना”।
अधिकारी यह भली-भांति जानते हैं कि उनकी जवाबदेही व्यावहारिक रूप से जनता के प्रति नहीं, बल्कि सत्ता के प्रति है।
यदि कोई आम नागरिक शिकायत करता है, तो वह फ़ाइल रजिस्टर में दब जाती है। लेकिन अगर वही निर्देश किसी मंत्री या विधायक की ओर से आता है, तो तुरंत कार्रवाई होती है।

यही कारण है कि “जनता के सेवक” का आदर्श व्यवहारिक रूप से “सत्ता का सेवक” बन चुका है।

लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट यही है कि जनता और शासन के बीच संवाद का पुल कमजोर होता जा रहा है।
जब जनता की आवाज़ सरकारी दफ्तरों तक नहीं पहुंचती, और अधिकारी केवल “ऊपर से आने वाले आदेश” को ही प्राथमिकता देते हैं, तो जनता का भरोसा व्यवस्था से उठने लगता है। यह स्थिति धीरे-धीरे लोकतंत्र को खोखला बनाती है।

आखिर इसके समाधान की दिशा क्या है? हर अधिकारी की कार्यप्रणाली को सार्वजनिक प्रतिक्रिया और रेटिंग से जोड़ा जाए। जनता को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपने क्षेत्र के अधिकारी के कामकाज पर टिप्पणी कर सके।अधिकारियों की पदोन्नति और पदस्थापन में जनता से जुड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन को एक प्रमुख पैमाना बनाया जाए।

विकास कार्यों की स्थिति और गुणवत्ता का डिजिटल मॉनिटरिंग सिस्टम जनता के लिए खुला रखा जाए।स्थानीय निकायों और जनप्रतिनिधियों के माध्यम से जनता को निर्णय प्रक्रिया में शामिल किया जाए।

शासन व्यवस्था तभी सार्थक बन सकती है, जब अधिकारी यह समझें कि वे सत्ता के नहीं, बल्कि जनता के सेवक हैं। जनता की सुविधा और सम्मान ही उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए।
आज आवश्यकता है सोच में परिवर्तन की — क्योंकि जब तक “सेवक” शब्द केवल औपचारिक रहेगा और “सेवा” व्यवहार में नहीं उतरेगी, तब तक लोकतंत्र की असली भावना अधूरी ही रहेगी।

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