@विनोद भगत
रिश्वत का हिसाब ऊपर तक देना होगा
हरिराम एक रिटायर्ड स्कूल मास्टर था। उम्र के अंतिम पड़ाव पर आकर भी उसकी पीठ सीधी, आवाज़ में वही पुरानी दृढ़ता और आँखों में गहराई वैसी ही बनी रही। उसके लिए ईमानदारी कोई आदर्श नहीं, जीने का ढंग था। बेटे की कॉलेज फीस और छात्रवृत्ति की प्रक्रिया के लिए उसे एक दिन तहसील दफ्तर जाना पड़ा। सरकारी दफ्तरों से वर्षों की दूरी के बाद जब वह उस चिलचिलाती दोपहर में वहाँ पहुँचा, तो उसे एहसास हुआ कि देश तो आज़ाद हो गया, पर दफ्तरों की गुलामी अब भी वही है।
बाबू श्रीवास्तव कुर्सी पर अधलेटा-सा बैठा था, मुँह में सुपारी और चाय का कप मेज पर। हरिराम ने विनम्र स्वर में कहा, “बेटे की छात्रवृत्ति के लिए फॉर्म जमा करना है, सभी दस्तावेज साथ हैं।”
बाबू ने नजर घुमाई, झुँझलाया, फिर धीरे से फाइल उठाई और बोला, “सब ठीक है… लेकिन काम जल्दी कराना है तो कुछ सेवा शुल्क देना होगा।”
हरिराम चौंका, “सेवा शुल्क?”
बाबू हँसा, फिर थोड़ा फुसफुसाते हुए बोला, “भाई साहब, ये जो आप फॉर्म दे रहे हैं न, ये ऊपर तक जाता है। हम अकेले नहीं खाते। ऊपर तक हिसाब देना होता है।”
हरिराम ने गहरी साँस ली और बड़ी शांत आवाज़ में बोला, “आप ठीक कह रहे हैं। ऊपर तक तो हिसाब देना ही होता है। आखिर वहाँ तो जाना ही है।” मतलब आप भी ऊपर वाले को मानते हैं?
बाबू उसकी बात सुनकर पहले मुस्कराया और बोला अब ये हुई ना बात। आप भी मानते हैं ऊपर वाले को और हम भी मानते हैं। अब ऊपर वाले की ना मानें तो नौकरी कैसे करें।लेकिन हरिराम की आँखों की चमक में कुछ ऐसा था जो उसे बेचैन कर गया।
हरिराम घर लौटा, लेकिन उसका मन अब शांत नहीं था। बेटे अमर ने पूछा, “पापा, काम हो गया?”
हरिराम ने कहा, “हमें लड़ना होगा अमर । ये सिर्फ फॉर्म की बात नहीं है, ये तुम्हारे भविष्य की ईमानदारी की नींव है।”
अमर को लगा पिताजी फिर आदर्शवाद पर उतर आए हैं, लेकिन वह चुप रहा। अगले दिन से हरिराम ने आरटीआई डाली, लोकायुक्त को पत्र लिखा, सोशल मीडिया पर एक नौजवान पत्रकार की मदद से वीडियो डाला। धीरे-धीरे लोग जुड़ते गए। कुछ चिढ़े, कुछ हँसे – “अरे मास्टर साहब, अब क्या उम्र में क्रांति लाएँगे?”
लेकिन हरिराम नहीं रुका।
जाँच बैठी, बाबू श्रीवास्तव पर सवाल उठे। लेकिन वह बच निकला – ऊपर तक पहुँच थी। फाइलें गुम हो गईं, गवाह पलट गए।
एक दिन थका-हारा हरिराम सड़क किनारे बैठा था। सामने स्कूल से लौटते बच्चे दिखे – हँसते, मुस्कराते, सपनों से भरे। वह मुस्कराया। “मैं हार नहीं रहा, मैं बीज बो रहा हूँ।”
कुछ महीनों बाद हरिराम चल बसा। कोई तामझाम नहीं, बस एक चिठ्ठी –
“जिस व्यवस्था से लड़ा, उससे जीतना ज़रूरी नहीं था। लड़ना ज़रूरी था। अमर , तुम लड़ना मत छोड़ना। और बाबू से कहना, ऊपर का हिसाब किसी फाइल में नहीं, अंतरात्मा में लिखा जाता है।”
दूसरी तरफ बाबू श्रीवास्तव बूढ़ा हो गया था। एक रात उसे सपना आया – एक अंधेरे कमरे में हरिराम हाथ में बड़ा रजिस्टर लिए खड़ा था। कह रहा था, “नाम बताओ, हिसाब लिखना है। ऊपर से आदेश आया है।”
बाबू पसीने में डूबा जागा। वह बिस्तर से उठ बैठा। हरिराम गायब हो गया था। सपने को याद कर बाबू सिहर उठा।
अगले दिन जब वह आफिस गया तो आफिस के लोग हैरान हो गये। वह आफिस में अपने इंतजार में बैठे लोगों के पास पहुंचा। हर किसी से पूछ रहा था कि क्या काम है? कागज दिखाओ। सब आश्चर्यचकित थे। कागज लेकर अपने दफ्तर की कुर्सी पर बैठा और एक एक कर सबके कागज निपटा दिये। जो लोग यह सुनकर आये थे कि ये बाबू बडा़ खाऊ है। बिना लिये दिये बात तक नहीं करता। उम्मीद के विपरीत बिना कुछ हील हुज्जत के चुपचाप सभी का काम उसने निपटा दिया। लोग हैरान हुए कहने लगे – “श्रीवास्तव पगला गया है!” पर श्रीवास्तव पगलाया हुआ पहले था अब तो वह ठीक हो गया था ये बात शायद ही लोगों की समझ में आये।
अब श्रीवास्तव अब हर सुबह हरिराम की तस्वीर को प्रणाम करता। उसकी मेज पर एक पट्टिका लगी थी –जिस पर लिखा था “हम सब ऊपर तक जाएँगे, फर्क इतना है – कोई हिसाब लेकर, कोई हिसाब देने।”