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वशिष्ठ नारायण सिंह: नासा से गुमनामी तक का सफरनामा

बिहार के जाने-माने गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का निधन हो गया है। दशकों से मानसिक बीमारी से जूझ रहे वशिष्ठ नारायण सिंह ने 74 साल की उम्र में पटना में आख़िरी सांस ली। वशिष्ठ नारायण सिंह का जीवन काफ़ी उतार-चढ़ाव से भरा रहा. उनका जीवन नासा में काम करने से लेकर गुमनाम होने तक काफ़ी दिलचस्प है।

एक बूढ़ा आदमी हाथ में पेंसिल लेकर यूंही पूरे घर में चक्कर काट रहे था। कभी अख़बार, कभी कॉपी, कभी दीवार, कभी घर की रेलिंग, जहां भी उनका मन करता, वहां कुछ लिखते, कुछ बुदबुदाते हुए। घर वाले उन्हें देखते रहते थे, कभी आंखों में आंसू तो कभी चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े।

यह 70 साल का पगला सा आदमी अपने जवानी में ‘वैज्ञानिक जी’ के नाम से मशहूर था। मिलिए महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह से।

तकरीबन 40 साल से मानसिक बीमारी सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित वशिष्ठ नारायण सिंह पटना के एक अपार्टमेंट में गुमनामी का जीवन बिता रहे थे लेकिन किताब, कॉपी और एक पेंसिल उनकी सबसे अच्छी दोस्त थी।

पटना में उनके साथ रह रहे भाई अयोध्या सिंह ने कहा था, “अमरीका से वो अपने साथ 10 बक्से किताबें लाए थे, जिन्हें वो पढ़ा करते थे। बाक़ी किसी छोटे बच्चे की तरह ही उनके लिए तीन-चार दिन में एक बार कॉपी, पेंसिल लानी पड़ती थी।”

वशिष्ठ नारायण सिंह ने आंइस्टीन के सापेक्ष सिद्धांत को चुनौती दी थी। उनके बारे में मशहूर है कि नासा में अपोलो की लॉन्चिंग से पहले जब 31 कंप्यूटर कुछ समय के लिए बंद हो गए तो कंप्यूटर ठीक होने पर उनका और कंप्यूटर्स का कैलकुलेशन एक था।

पटना साइंस कॉलेज में बतौर छात्र ग़लत पढ़ाने पर वह अपने गणित के अध्यापक को टोक देते थे। कॉलेज के प्रिंसिपल को जब पता चला तो उनकी अलग से परीक्षा ली गई जिसमें उन्होंने सारे अकादमिक रिकार्ड तोड़ दिए। पाँच भाई-बहनों के परिवार में आर्थिक तंगी हमेशा डेरा जमाए रहती थी। लेकिन इससे उनकी प्रतिभा पर ग्रहण नहीं लगा।

वशिष्ठ नारायण सिंह जब पटना साइंस क़ॉलेज में पढ़ते थे तभी कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन कैली की नज़र उन पर पड़ी। कैली ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और 1965 में वशिष्ठ नारायण अमरीका चले गए।

साल 1969 में उन्होंने कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बन गए। नासा में भी काम किया लेकिन मन नहीं लगा और 1971 में भारत लौट आए। पहले आईआईटी कानपुर, फिर आईआईटी बंबई और फिर आईएसआई कोलकाता में नौकरी की।

इस बीच 1973 में उनकी शादी वंदना रानी सिंह से हो गई। घरवाले बताते हैं कि यही वह वक्त था जब वशिष्ठ जी के असामान्य व्यवहार के बारे में लोगों को पता चला।

उनकी भाभी प्रभावती बताती हैं, “छोटी-छोटी बातों पर बहुत ग़ुस्सा हो जाना, कमरा बंद करके दिन-दिन भर पढ़ते रहना, रात भर जागना उनके व्यवहार में शामिल था। वह कुछ दवाइयां भी खाते थे लेकिन वे किस बीमीरी की थीं, इस सवाल को टाल दिया करते थे।”

इस असामान्य व्यवहार से वंदना भी जल्द परेशान हो गईं और तलाक़ ले लिया। यह वशिष्ठ नारायण के लिए बड़ा झटका था।तक़रीबन यही वक्त था जब वह आईएसआई कोलकाता में अपने सहयोगियों के बर्ताव से भी परेशान थे।

भाई अयोध्या सिंह कहते हैं, “भैया (वशिष्ठ जी) बताते थे कि कई प्रोफ़ेसर्स ने उनके शोध को अपने नाम से छपवा लिया और यह बात उनको बहुत परेशान करती थी।”

साल 1974 में उन्हें पहला दौरा पड़ा, जिसके बाद शुरू हुआ उनका इलाज। जब बात नहीं बनी तो 1976 में उन्हें रांची में भर्ती कराया गया। घरवालों के मुताबिक़ इलाज अगर ठीक से चलता तो उनके ठीक होने की संभावना थी। लेकिन परिवार ग़रीब था और सरकार की तरफ़ से मदद नहीं मिली।

1987 में वशिष्ठ नारायण अपने गांव लौट आए। लेकिन 89 में अचानक ग़ायब हो गए. साल 1993 में वह बेहद दयनीय हालत में डोरीगंज, सारण में पाए गए।

आर्मी से सेवानिवृत्त डॉ वशिष्ठ के भाई अयोध्या सिंह बताते हैं, ” उस वक्त तत्कालीन रक्षा मंत्री के हस्तक्षेप के बाद मेरा बेंगलुरु तबादला किया गया जहां भैया का इलाज हुआ। लेकिन फिर मेरा तबादला कर दिया गया और इलाज नहीं हो सका। तब से अब तक वह घर पर हैं।”

डॉ वशिष्ठ का परिवार उनके इलाज को लेकर अब नाउम्मीद हो चुका था। घर में किताबों से भरे बक्से, दीवारों पर वशिष्ठ बाबू की लिखी हुई बातें, उनकी लिखी कॉपियां उनको डराती थीं। डर इस बात का थआ कि क्या वशिष्ठ बाबू के बाद ये सब रद्दी की तरह बिक जाएगा।

जैसी कि उनकी भाभी प्रभावती कहती भी हैं, “हिंदुस्तान में मिनिस्टर का कुत्ता बीमार पड़ जाए तो डॉक्टरों की लाइन लग जाती है। लेकिन अब हमें इनके इलाज की नहीं किताबों की चिंता है। बाक़ी तो यह पागल ख़ुद नहीं बने, समाज ने इन्हें पागल बना दिया।”

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