दुनिया की कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का एक बड़ा हिस्सा, जानवरों के शरीर की गतिविधियों से निकलता है। सवाल ये है कि क्या उनके पेट में पाए जाने वाले बैक्टीरिया में बदलाव कर के हम अपनी धरती को जलवायु परिवर्तन के क़हर से बचा सकते हैं।
एक मोटे अनुमान के मुताबिक़, दुनिया की कुल ग्रीनहाउस गैसों में से 14 प्रतिशत का उत्सर्जन इन पालतू जानवरों से ही होता है। कार्बन डाई ऑक्साइड के अलावा खेती की वजह से दो और गैसें भारी मात्रा में निकलती हैं।
ये हैं नाइट्रस ऑक्साइड, जो खेतों में उर्वरक के इस्तेमाल से पैदा होती है और मीथेन। मीथेन गैस अक्सर भेड़ों और दूसरे पालतू जानवरों के पेट में बनती है। फिर जानवर उसे वातावरण में छोड़ते हैं।
जुगाली करने वाला एक जानवर दिन भर में औसतन 250-500 लीटर तक मीथेन गैस छोड़ता है। एक आकलन है कि जानवर डकार और हवा छोड़ते हुए इतनी मीथेन गैस छोड़ते हैं, जो 3.1 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड के बराबर नुक़सान करती है।
यूं तो पालतू जानवरों के पेट में बड़ी तादाद में कीटाणु पलते हैं। लेकिन, इन में से केवल तीन फ़ीसद ही ऐसे होते हैं, जो मीथेन गैस के उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।
ये बैक्टीरिया, जानवरों की आंतक के पहले हिस्से में रहते हैं, जिन्हें रूमेन कहते हैं। ये प्राचीन काल में धरती पर पैदा हुए आर्किया नाम के कीटाणुओं के वंशज हैं। ये बिना ऑक्सीजन वाले माहौल में जीवित रह सकते हैं।
ये जानवरों के चारे का फर्मेंटेशन कर के उस पर अपना बसर करते हैं। लेकिन, इस प्रक्रिया में मीथेन गैस निकलती है। इस गैस के दबाव की वजह से ही जानवरों में डकार निकलती है, या हवा खुलती है।