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तो क्या सूचना के अधिकार को भोथरा करने में जुटी है केंद्र सरकार!-

 

शब्ददूत ब्यूरो

हाल ही में संसद ने सूचना के अधिकार (संशोधन) विधेयक-2019 को मंजूरी दी है। इसके तहत केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्तों की सेवा शर्तें अब केंद्र सरकार तय करेगी। ये भी कि सूचना आयुक्तों का सुप्रीम कोर्ट के जज के बराबर का दर्जा भी खत्म हो जाएगा।

देश की जनता को सूचना देने के लिए बनाए गए इस अहम कानून में बदलाव को लेकर विपक्ष और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने गहरी आपत्ति जाहिर की है। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मोदी सरकार पर इन संशोधनों के जरिए आरटीआई कानून को खत्म करने का आरोप लगाया है। उन्होनें इसे नागरिकों को कमजोर करने वाली प्रक्रिया भी बताया।

पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला और दीपक संधू के अलावा पूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी, श्रीधर आचार्यालु, एमएम अंसारी, यशोवर्धन आज़ाद और अन्नपूर्णा दीक्षित ने भी आरटीआई संशोधन बिल का विरोध किया।

हालांकि सरकार ने इन सभी आरोपों को खारिज किया। कार्मिक मंत्री जितेंद्र सिंह के मुताबिक यह कहने का कोई आधार नहीं है कि आरटीआई संशोधन विधेयक से इस कानून की स्वायत्तता कमजोर होगी।

इससे पहले भी मोदी सरकार पर सूचनाओं को रोकने के आरोप लगते रहे हैं। इनमें से अधिकतर वे सूचनाएं शामिल हैं, जो आरटीआई कानून के तहत संबंधित मंत्रालयों, विभागों और प्राधिकरणों सहित अन्य सरकारी संस्थाओं को खुद ही सार्वजनिक करनी होती हैं। इस कानून की धारा 4(1-बी) में सभी सरकारी संस्थाओं से सूचनाओं को नियमित रूप से सार्वजनिक करने के लिए कहा गया है। माना जाता है कि इससे जनता को उनकी जरूरत की सूचनाएं बिना आरटीआई आवेदन किए ही हासिल हो जाएंगी और संस्थाओं के जन सूचना अधिकारियों पर काम का बोझ भी थोड़ा कम होगा।

लेकिन हालिया वर्षों को देखें तो ये सूचनाएं भी अब सार्वजनिक नहीं हैं। इनमें राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की वार्षिक रिपोर्ट मुख्य है। इस रिपोर्ट के जरिए देश में राज्यवार अपराध के अलग-अलग मामलों की संख्या का पता चलता है। इसमें खुदकुशी करने वाले किसानों और खेतिहर मजदूरों की संख्या भी सार्वजनिक शामिल होती है। लेकिन, साल 2016 के बाद से एनसीआरबी की रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई है। इसकी वजह से आम लोगों को इस जानकारी लेने के लिए आरटीआई का सहारा लेना पड़ रहा है। संसद में भी वैसे सवाल पूछे जा रहे हैं, जिनका जवाब एनसीआरबी की रिपोर्ट से मिलता था। यानी इसके प्रकाशित न होने की वजह से आम लोगों के साथ-साथ संसद का बहुमूल्य वक्त भी खराब हो रहा है। हालांकि, तब भी सरकार इससे जुड़े सवालों के जवाब देने में असमर्थ दिख रही है।

उदाहरण के लिए बीती 24 जुलाई को राज्यसभा में कांग्रेस सांसद हुसैन दलवई ने साल 2016, 2017 और 2018 के दौरान घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न सहित महिलाओं के खिलाफ होने वाले तमाम अपराधों के आंकड़े मांगे थे। लेकिन, इसके जवाब में गृह मंत्रालय साल 2014, 2015 और 2016 के आपराधिक आंकड़ों की जानकारी ही दे पाया। वहीं, बीती 17 जुलाई को एक अन्य सांसद ने साल 2017 और 2018 के दौरान बच्चों के खिलाफ हिंसा से जुड़ा एक सवाल पूछा था। लेकिन इसका जवाब भी सरकार से नहीं मिल पाया। इन सवालों के जवाब न मिल पाने की वजह बीते दो वर्षों के दौरान एनसीआरबी की रिपोर्ट प्रकाशित न होना ही बताया गया।

इससे पहले जनवरी, 2019 में प्रकाशित बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट में बेरोजगारी के उच्चतम स्तर की जानकारी दी गई थी। इस रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया था कि राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग (एनएससी) के तत्कालीन प्रमुख और एक अन्य सदस्य ने सरकार पर गंभीर आरोप लगाया था। इनका कहना था कि आयोग की मंजूरी के बाद भी रोजगार से संबंधित रिपोर्ट को सरकार ने रोक लिया है। इसके विरोध में उनके अपने-अपने पद से इस्तीफे देने की भी खबर भी आई थी। उस वक्त सरकार ने इस बात को खारिज किया था। लेकिन, लोकसभा चुनाव-2019 के बाद जून में प्रकाशित एनएसएसओ की रिपोर्ट में भी बीते साढ़े चार दशकों में रोजगार की सबसे खराब स्थिति का जिक्र था।

केंद्र सरकार के कामकाज से संबंधित सूचनाओं के प्राथमिक स्रोतों यानी मंत्रालयों, विभागों और अन्य संस्थाओं की वेबसाइटों पर अद्यतन (अपडेटेड) जानकारी का अभाव साफ दिखता है। इस मामले में इनकी हिंदी वेबसाइटों की स्थिति और भी खराब है। उदाहरण के लिए, वित्त मंत्रालय के व्यय विभाग की अंग्रेजी वेबसाइट में इस रिपोर्ट को लिखे जाने तक 24 जुलाई तक का अपडेट है। वहीं, इसकी हिंदी वेबसाइट पर सन्नाटे की स्थिति है, यानी यहां कुछ भी नहीं दिखता।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (पीएम-ईएसी) की वेबसाइट को साल 2012-13 के बाद अब तक अपडेट नहीं किया गया है। साल 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने पहली बार 25 सितंबर, 2017 को पीएम-ईएसी का गठन किया था। इस परिषद का काम आर्थिक सहित प्रधानमंत्री द्वारा सौंपे गए सभी मुद्दों का विश्लेषण कर उन्हें सलाह देना था। लेकिन, बीते करीब दो साल के दौरान इनसे जुड़ी कोई भी जानकारी आर्थिक सलाहकार परिषद की वेबसाइट पर मौजूद नहीं है।

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