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उत्तराखंड में इस बार टूटेगा मिथक या रहेगा जारी, मतदाताओं की चुप्पी राजनीतिक दलों पर भारी

2022 के विधानसभा चुनाव में मतदाता के दिल में क्या है राजनीतिक दल इसे भांपने में सफल नहीं हुए। बदली परिस्थितियों में 65 प्रतिशत से अधिक मतदान को लेकर राजनीतिक विश्लेषक व दल अलग-अलग आकलन कर रहे हैं।

@शब्द दूत ब्यूरो (15 फरवरी, 2022)

वैश्विक महामारी कोरोना का साया और प्रचार अभियान की फीकी रंगत के बावजूद उत्साहजनक मतदान प्रतिशत ने राजनीतिक दलों को चकित किया है। इस चुनाव में लगभग 65.10 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल किया। हालांकि निर्वाचन आयोग के मुताबिक पोलिंग पार्टियों के अभिलेखों के मिलान के बाद इसमें कुछ परिवर्तन हो सकता है। उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद हुए पहले तीन विधानसभा चुनावों में मतदान प्रतिशत में लगातार वृद्धि हुई, जबकि वर्ष 2017 के चौथे विधानसभा चुनाव में इसमें एक प्रतिशत से अधिक की गिरावट दर्ज की गई थी।

भाजपा को इस चुनाव में भी मोदी मैजिक का पूरा भरोसा रहा और अब जिस तरह मतदाता खासी संख्या में घरों से निकल मतदान को पहुंचे, उसने भाजपा को राहत दी है। यह बात अलग है कि कांग्रेस भी इसे सत्ता में बदलाव के संकेत के रूप में परिभाषित करते हुए अपने पक्ष में बता रही है। अब भाजपा का विश्वास कायम रहता है या फिर कांग्रेस का दावा सच साबित होगा, यह 10 मार्च को मतगणना के बाद सामने आ जाएगा।

इस चुनाव में मोदी मैजिक के साथ ही भाजपा को विकास के नाम पर जनादेश मिलने का भरोसा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जादू उत्तराखंड में हर बार चला है। मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश के बाद भाजपा पिछले आठ वर्षों से उत्तराखंड में अविजित है। वर्ष 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी पांचों सीटों पर परचम फहराने के अलावा वर्ष 2017 के पिछले विधानसभा चुनाव में 70 में से 57 सीटों पर जीत इसे प्रमाणित करती है।

इधर, कांग्रेस की चुनाव में सबसे बड़ी उम्मीद भाजपा सरकार की पांच साल की एंटी इनकंबेंसी है। इसे हर पांच वर्ष में सत्ता में बदलाव के मिथक से जोड़ते हुए पार्टी जीत का दावा कर रही है। कांग्रेस ने भाजपा की पांच साल की सरकार में तीन-तीन मुख्यमंत्री के मुद्दे को भी भुनाने की कोशिश की। इसके अलावा महंगाई और बेरोजगारी दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर कांग्रेस को उम्मीद है कि मतदाता बड़ी संख्या में मतदान केंद्रों तक पहुंचे। हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर जिलों, जहां कुल 20 सीटें हैं, में किसान आंदोलन के असर को भी पार्टी अपने पक्ष में मानकर चल रही है और उसे लगता है कि यह चुनाव परिणाम में भी झलकेगा। मतदान के दौरान मुस्लिम बहुल इलाकों व बस्तियों में मतदाताओं के उत्साह ने कांग्रेस के भरोसे को बढ़ाया है।

उत्तराखंड में इससे पहले हुए चार विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस दो-दो बार सत्ता में आई हैं। वर्ष 2002 के पहले चुनाव में कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले केवल 1.46 प्रतिशत मत अधिक मिले, लेकिन इससे दोनों पार्टियों के बीच 17 सीटों का अंतर आ गया।

वर्ष 2007 में भाजपा के हिस्से कांग्रेस से महज 2.31 प्रतिशत अधिक मत आए, लेकिन सीटों का अंतर 14 हो गया। वर्ष 2012 में कांग्रेस को भाजपा से केवल 0.66 प्रतिशत ज्यादा मत मिले, सीट भी एक ही अधिक मिली, लेकिन इससे सत्ता भाजपा से खिसक कर कांग्रेस को मिल गई। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को कांग्रेस की अपेक्षा 13.02 प्रतिशत अधिक मत मिले और भाजपा के खाते में कांग्रेस से 46 सीटें ज्यादा आई।

उत्तराखंड छोटा राज्य है और विधानसभा सीटों का आकार भी मतदाता संख्या के दृष्टिकोण से भी छोटा ही है। यही वजह है कि हजार, दो हजार और पांच हजार से भी कम अंतर से यहां काफी सीटों के नतीजे तय होते हैं। अगर वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के ही नतीजे देखें तो तब पांच सीटें ऐसी थीं, जहां जीत-हार का अंतर एक हजार से भी कम रहा। ये थीं जागेश्वर, सोमेश्वर, केदारनाथ, गंगोलीहाट और लोहाघाट।

इसी तरह छह सीटें ऐसी थीं, जिनमें हार-जीत का अंतर एक हजार से लेकर दो हजार मतों के बीच रहा। इनमें लक्सर, पिरान कलियर, चकराता, धनोल्टी, प्रतापनगर व पुरोला शामिल हैं। दो हजार से लेकर पांच हजार तक मतों के अंतर से 15 सीटों पर हार-जीत हुई। इनमें देवप्रयाग, नरेंद्र नगर, ज्वालापुर, भगवानपुर, झबरेड़ा, मंगलौर, धारचूला, डीडीहाट, पिथौरागढ़, सल्ट, रानीखेत, भीमताल, जसपुर, किच्छा और खटीमा शामिल हैं

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