@पंकज महर
उत्तराखण्डी संगीत के मील के पत्थर जीत सिंह नेगी का निधन हो गया। 2फरवरी1927 को ग्राम- अयाल, पैडुलस्यूं, पौड़ी गढ़्वाल में जन्में जीत सिंह नेगी जी गढ़्वाल की लोक संस्कृति को गीतों के स्वरों से जीवन्त रखने वाले बेजोड़ लोक गायक और गीतकार थे। गढ़वाली बोली में अनेक अनूठे गीतों की इन्होंने रचना की थी। गढ़वाली बोली, सामाजिक परिवेश, परम्परायें, रुढ़ियों और लोक विश्वास पर इनकी आश्चर्यजनक पकड़ थी। पर्वतीय संस्कृति को उजागर करने वालों अनेकों गीतों की रचना कर सुरों में ढाला है नेगी जी ने। अभावों से अभिशप्त प्रवासी प्रवतीयों के विकल करुण जीवन के संयोग, वियोग के सैकड़ों गीत आपने लिखे थे। इनके गीतों में निश्चल, सहज और नैसर्गिक प्रेम की अभिव्यंजन होती है। इनमें कहीं भी खलनायक या खलनायिका के संकेत नहीं मिलते, यही उत्तराखण्डी संस्कृति का मूल रुप भी है।
गीतों के अतिरिक्त नेगी जी नाटक भी लिखते थे, मलेथा की कूल, भारी भूल, जीतू बगड़वाल इनके प्रसिद्ध नाटक हैं। रामी काव्य की नृत्य नाटिका बनाने का श्रेय भी इन्हीं को है, अपने गीतों और नाटकों का मंचन वे भारत के कई शहरों में कर चुके थे। गीत गंगा, जौल मंजरी, छम घुंघरु बाजला इनके प्रकाशित गीत संग्रह हैं। छात्र जीवन के तत्काल बाद फिल्म लाइन के मोह में ये दिल्ली-बम्बई चले गये, 1949 में अपने 6 गीतों की ग्रामोफोन रिकार्डिंग एचएमवी से कराने में वे सफल भी रहे।
1952 में बम्बई के दामोदर हाल में गढ़वाल भातृ मण्डल के तत्वावधान में इन्होंने स्वरचित नाटक भारी भूल का सफल मंचन भी किया। 1957 तक नेगी जी लोक गीतों की धुनों के मर्मज्ञ हो गये। आकाशवाणी, दिल्ली के तत्कालीन संगीत निर्देशक ठाकुर जयदेव सिंह ने इन्हें लोक गीतों की धुनों को सम्पन्न रुप देने के लिये आमंत्रित किया। इनका गाया लोक गीत “तू होली ऊंची डांडयूं मां, बीरा घसियारी का भेस मां, खुद मां तेरी सड़क्यों पर रुणों छौं हम परदेश मां” इतनी मार्मिकता और भावुकता से भरा है कि प्रवासी पहाड़ी की आंखें एक बार छलछला जाती हैं। नेगी जी वृद्धावस्था के बाद भी निरन्तर उत्तराखण्डी लोक संगीत की सेवा करते रहे और आज यह लोकगायक अनन्त में विलीन हो गया।