Breaking News

राजनीति : यथा राजा,तथा प्रजा@ राकेश अचल

राकेश अचल,
वरिष्ठ पत्रकार जाने माने आलोचक

क्या दुनिया युद्ध से मोक्ष पा सकती है ? क्या दुनिया के पास युद्ध के तर्पण कोई कोई विधि है ? जबाब मिलेगा शायद नहीं। अगर ऐसा कुछ होता तो धरती पर युद्ध होते ही नही। युद्ध को लेकर एक और तथ्य काबिले गौर ये है कि युद्ध के समय युद्धरत देश के राजा और प्रजा का रिश्ता भी एक जैसा होता है। यदि नेतृत्व कमजोर है तो युद्ध अवश्यम्भावी हो जाता है और यदि नेतृत्व मजबूत है तो न युद्ध होता है और न वाक्युद्ध। वाक्युद्ध को ‘ शीतयुद्ध ‘ भी कहते हैं।

फिलस्तीन और इजराइल के बीच युद्ध का कोई पहला मामला नहीं है। इजराइल भी भारत की तरह अपनी आजादी का अमृतकाल मना रहा है किन्तु उसे यहां तक आते -आते लगातार युद्धों का सामना करना पड़ा है। इजराइल अपने पड़ौसी देश के साथ 10 युद्ध लड़ चुका है। ये ग्यारहवां युद्ध है और शायद अब तक का सबसे ज्यादा विनाशकारी भी। इस विनाशकारी युद्ध में दोनों पक्षों के हजारों नागरिक मारे जा चुके हैं। ये सिलसिला थमने में कितना वक्त और लगेगा ,ये कोई नहीं जानता। इजराइल के मौजूदा प्रधानमंत्री नेतन्याहु के कार्यकाल का शायद ये चौथा युद्ध है।

इजराइल के साथ भारत के रिश्ते नए नहीं हैं लेकिन उनमें नरमी-गर्मी होती रहती है। भारत ने वर्ष 1950 में इज़रायल को आधिकारिक रूप से मान्यता दे दी थी, लेकिन दोनों देशों द्वारा 29 जनवरी, 1992 को ही पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किये गए । भारत दिसंबर 2020 तक इज़रायल के साथ राजनयिक संबंध रखने वाले 164 संयुक्त राष्ट्र सदस्य राज्यों में से एक था।भारत ने अपनी पारम्परिक विदेशनीति पर चलते हुए इजराइल के पुश्तैनी शत्रु फिलस्तीन के साथ भी अपने रिश्ते बनाये और इजराइल से पहले बनाये। भारत फिलिस्तीन मुक्ति संगठन के अधिकार को “फिलीस्तीनी लोगों का एकमात्र वैध प्रतिनिधि” के रूप में समकालीन रूप से मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश था। मार्च 1980 में पूर्ण राजनयिक संबंधों के साथ 1975 में भारतीय राजधानी में एक पीएलओ कार्यालय स्थापित किया गया था। भारत ने 18 नवंबर 1988 को घोषणा के बाद फिलिस्तीन की राज्यता को मान्यता दी थी हालांकि भारत और पीएलओ के बीच संबंध पहली बार 1974 में स्थापित हुए थे।

बात यथा राजा ,तथा प्रजा की हो रही थी । भारत के इजराइल और फिलिस्तीन से रिश्तों के बावजूद भारत की जनता हमेशा फिलिस्तीन के साथ खड़ी दिखाई दी। फिलिस्तीन के तत्कालीन प्रमुख यासर अराफात और भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की दोस्ती शायद इसकी वजह थी । मजे की बाते ये कि इंदिरा गाँधी और अराफात के घनिष्ठ रिश्तों के बावजूद कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री फिलस्तीन नहीं गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फिलस्तीन जाने वाले पहले प्रधानमंत्री थे। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 10 फरवरी 2018 को वेस्ट बैंक का दौरा किया, जो एक भारतीय प्रधानमन्त्री द्वारा फिलिस्तीनी क्षेत्रों का पहला दौरा था।.फिलिस्तीन की यात्रा के दौरान, 10 फरवरी 2018 को नरेन्द्र मोदी को फिलिस्तीन के ग्रैंड कॉलर से सम्मानित भी किया गया ,लेकिन मोदी और इजराइल की नजदीकी ज्यादा रही।
मौजूदा इजराइल -फिलिस्तीन युद्ध में मोदी फिलिस्तीन के साथ खड़े दिखाई नहीं दे रहे,और शायद इसीलिए भारत में भी जनता इस मुद्दे पर विभाजित दिखाई दे रही है। मोदी के भक्त इजराइल के साथ हैं ,जबकि नृशंसता में फिलिस्तीन के आतंकी हमास और इजराइली सेना में कोई किसी से कम नहीं है। भारत इस समय इजराइल के साथ क्यों है ये समझने के लिए आपको दोनों देशों के पंत प्रधानों की तुलना करना पड़ेगी। दोनों में तमाम साम्य हैं और सबसे बड़ा समय ये है कि इस समय दोनों अमेरिका के प्रति आशक्त हैं। अमेरिका के प्रति आशक्ति दोनों देशों के पंत प्रधानों की मजबूरी है या आवश्यकता ये समझना भी आवश्यक है।

नेतन्याहू इजराइल के ऐसे नेता हैं जो सीधे प्रधानमंत्री नहीं बने। उन्हें देश के प्रतिपक्ष के नेता बनने का भी अनुभव है। वे अपने देश के वित्त मंत्री तथा विदेश मंत्री भी रहे । जबकि हमारे पंत प्रधान को केवल मुख्यमत्री पद का 15 साल का अनुभव है । उन्होंने संसद ही पहली बार 2014 में देखी। जबकि नेतन्याहू 1996 में ही अपने देश की बागडोर सम्हाल चुके थे । वे एक बार नहीं बल्कि तीन बार प्रधानमंत्री बने ,ये उनका शायद चौथा कार्यकाल है। हमारे पंत प्रधान भी नेतन्याहू बनना चाहते हैं। वे भी युद्धप्रिय है। उनके जमाने में भारत के एक भी पड़ौसी से रिश्ते अच्छे नहीं हैं। रिश्तों में कड़वाहट का आलम ये है कि जी-20 समूह का सदस्य कनाडा अब पी -20 से में आने को तैयार नहीं है।हमारे पंतप्रधान इसकी परवाह भी नहीं करते।

इजराइल -हमास संघर्ष के दौरान भारत सरकार अपना काम कर रही है । भारतीयों को युद्ध की आग में झुलसे इजराइल से बाहर निकलने के लिए भारतीय विमान लगातार उड़ाने भर रहे है। इसकी सरहना की जाना चाहिए । खुद पंत प्रधान कैलाश दर्शन पर हैं। वे वहां डमरू बजा रहे हैं। शंख फूंक रहे हैं। ये देखकर बहुत अच्छा लगता है ,क्योंकि ये सब एक बेफिक्र नेता की निशानियां हैं। हमारे पंत प्रधान की यही बेफिक्री देश -दुनिया ने तब भी देखी जब भारत का अभिन्न अंग मणिपुर जल रहा था,वहां भी मानवता तार-तार हो रही थी। जो बर्बरता हमास के आतंकियों ने इजराइली महिलाओं के साथ की वैसी ही बर्बरता मणिपुर की महिलाओं के साथ भी हुई थी। किन्तु स्थितिप्रज्ञ पंतप्रधान ने अपना मौन नहीं तोड़ा था।

भारत कभी भी हिंसा का ,आतंकवाद का समर्थक नहीं रहा। भारत की विदेशनीति का आधार गुट निरपेक्षता और पंचशील के सिद्धांत रहे हैं। आज की भारत की विदेशनीति में इन तत्वों का घोर अभाव है। हाल के रूस -यूक्रेन युद्ध में भी हमने इस बात को रेखांकित किया और आज इजराइल तथा फिलिस्तीन के बीच जारी जंग में भी भारत की विदेश निति को लेकर सम्भ्रम की स्थिति है। हम तय नहीं कर पा रहे हैं कि हमें किस पक्ष के साथ खड़ा होना चाहिए ? इस मुद्दे पर आज फिलिस्तीन के प्रति हमदर्दी दिखाने वालों को आतंकवाद का समर्थक कहकर उनकी निंदा की जा रही है। ये दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। फिलिस्तीन का समर्थन हमास का स्मार्थन नहीं हो सकता। बहरहाल भारत के लिए ये समय है जब वो अपनी विदेशनीति की आंतरिक शक्ति को एक बार फिर से आंक ले। भारत का नेतन्याहू बनने के लिए हमारे पंत प्रधान को बहुत कुछ करना पडेगा। उन्हें अकेले शाखामृग तीसरी बार सत्ता तक नहीं पहुंचा सकते । इसके लिए पूरे देश के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। उन्हें चाहिए कि वे देश की जनता में किसी भी मुद्दे को लेकर विभाजन की रेखा खिचने न दें।
@ राकेश अचल
achalrakesh1959@gmail.com

Check Also

लोहाघाट:अभियंता की सर्विस बुक ढूंढने के लिए कर्मचारियों से दो मुट्ठी चावल लाकर मंदिर में अर्पित करने का आदेश

🔊 Listen to this @शब्द दूत ब्यूरो (16 मई 2025) लोहाघाट।  यहां लोक निर्माण विभाग …

googlesyndication.com/ I).push({ google_ad_client: "pub-