अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस ( 21 फरवरी ) पर विशेष : माँ के दूध की भाँति समृद्ध बनाती है मातृभाषा 

@ डा.रामशंकर भारती
मातृभाषा का साधारण अभिप्राय बालक द्वारा मां से सीखी गई भाषा है। माँ ही मानव की पहली शिक्षिका है और परिवार पहली पाठशाला। स्वभावतः क्षेत्रीय भाषा या बोली ही मातृभाषा का प्रारंभिक रूप होती है। कलरव करते गाते – गुनगुनाते पक्षियों के समूह , रंभाते पशुओं के झुण्ड , झीं – झीं झनकार करते कीट – पतंगे एवं विविध बोलियों में अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति देने के मानव समूह जिस ध्वनि का प्रयोग करता है वह ध्वनि विशेष को ही मातृभाषा कहा जाता है।

प्राचीन भारतीय विद्याएँ भाषा के दो भेद करतीं हैं। प्राकृत और संस्कृत । प्राकृत अर्थात प्रकृत या स्वाभाविक लोकभाषा । योग के अनुसार भाषा के चार रूप हैं- बैखरी , मध्यमा , पश्यन्ती और परा । लोकभाषाएँ बैखरी का ही विस्तार हैं। लोकभाषा ही मातृभाषा है। यही मातृभाषा राष्ट्र भक्ति का मेरुदण्ड होती है। मातृभाषा के माध्यम से ही नानक , कबीर , तुलसी , सूरदास , रैदास , अमीर खुसरो , मीराबाई , रसखान , मलूकदास , जायसी आदि ने अपनी मातृभाषा को प्रतिष्ठा दी है।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी कहा करते थे …
” मुझे यह कतई सहन नहीं होगा कि हिंदुस्तान का एक भी आदमी अपनी मातृभाषा को भूल जाए या इसकी हँसी उड़ाए।इससे शरमाए या उसे ऐसा लगे कि वह अपने अच्छे से अच्छे विचार अपनी भाषा में प्रकट नहीं कर सकता। ”
मातृभाषा के अर्थ सीमा में ग्रामीण अशिक्षित मनुष्य की बोली से लेकर शिष्ट और शिक्षित परम विद्वान नागरिक की बोली एवं साहित्यिक व्यवहार की भाषा तक सम्मिलित है हम इसे साहित्यिक भाषा , उपभाषा या विभाषा,बोली और लिपिबद्ध भाषा इन चार भागों में अपनी मातृभाषा को शास्त्रीय रूप में विभाजित कर लेते हैं । तथापि मेरा मानना है मातृभाषा का जो अलौकिक स्वरूप है , जो लोक उत्पत्ति है , जो लोक संसार है, लोकशब्द संपदा हैं , लोक परंपरा है वह अत्यंत समृद्ध है। उसमें जो माधुर्य है , लालित्य है , लावण्य है वह अनूठा है , अप्रतिम है ।

मातृभाषा से भाषा बनाकर हम जिस राष्ट्रीयता में उसे बांधते हैं तब मातृभाषा के असंख्य लोकयशब्द जो सदानीरा होते हैं कोमल और अत्यंत संवेदनशील होते हैं भाषा की शास्त्रीयता से प्रायः अप्रचलित और कभी-कभी निष्ठुर भी हो जाते है। गढ़ी हुई भाषा लोक व्यवहार से के प्रचलन से दूर चली जाती है। आज भी जो खानाबदोश जातियाँ हैं कबीले हैं , बंजारे समाज हैं , जंगलों में रहने वाले आदिम लोग हैं उनकी जो स्थानिक भाषाएँ हैं उनकी जो बोलियाँ हैं उनके जो सुंदर लोकाचार हैं वह एक लोकमंगलकारी भारत की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

हममें अपनी मातृभाषा के प्रति अनुदारता का जो भाव आ गया है उस भाव से मुक्त होने की आवश्यकता है । इसके साथ ही हमें अन्य भाषाओं के शब्दों को भी अपने भाषा में आत्मसात करना होगा तभी हमारी मातृभाषा जीवंत और समृद्ध बनी रह सकती है। हिन्दी शब्द का प्रयोग भारत में बोली जानेवाली सभी आर्य भाषाओं के लिए होता है। हिन्दी भाषा बुंदेलखण्डी , ब्रज , अवधी , मैथिली , राजस्थानी ,छत्तीसगढ़ी , हरियाणावी , भोजपुरी , खड़ीबोली आदि को अपने में समेटे हुए है।
पता नहीं हम हिन्दी समाज के लोग क्यों इतने संकीर्ण हैं कि दूसरी भाषा के शब्दों को स्वीकार ने से परहेज करते हैं।अंग्रेजी भाषा के शब्दकोश में कभी 10 हजार शब्द हुआ करते थे आज उसकी शब्द संख्या साढ़े सात लाख के आसपास तक पहुँच गयी है। अंग्रेजी ने अनेक भाषाओं के शब्दों को अपने में आत्मसात कर दुनियाभर में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाई है। अपने को समृद्ध किया है। वृहद बनी है।

आज हमारी हिन्दी में अलमारी (पुर्तगाली ) , रिक्शा (जापानी ), चाकलेट (मैक्सिकन ) जैसे अनेक विदेशी भाषाओं के शब्द तो धडल्ले से प्रयोग हो रहे हैं। किंतु लोक भाषा के शब्दों को लेने में हम कतई उदार नहीं हैं। हमारी भाषा में छुआछूत की वही बीमारी है जो हमारे समाज में है। यही कारण है कि हिन्दी शब्दकोश में शब्दों की संख्या अंग्रेजी शब्दकोश से आधी भी नहीं है। संभवतः वही दो लाख के लगभग होगी।

इसका प्रमुख कारण है कि हम हिन्दीपट्टी के लोग लोक बोलियों के शब्दों का प्रयोग करने से बचते रहते हैं। हमारी भाषा में से किसानों के शब्द , श्रमिकों के शब्द , चरवाहों – हरवाहों के शब्द आज भी अनुपस्थित हैं। हम उन्हें देहाती व गँवारू मानकर छोड़े हुए हैं।..जबकि उन लोकबोलियों के शब्दों का सौंदर्यबोध देखते ही बनता है..।

हम लोक बोलियों के शब्दों को नहीं लेते हैं। कह देते हैं कि ये गँवारू शब्द हैं। कोई बोल देगा कि तुमको ‘लौकता’ नहीं है..? तो कहेंगे ये कैसा पढ़ा – लिखा है ! कहता है तुमको ” लौकता ” नहीं है । अब यह लौकना शब्द कितने गहरे और मीठे शब्दों का अर्थबोध कराता है कि देखते ही बनता है। इसी ‘ लौकना ‘ शब्द को हम हिन्दी की आँख से देखें तो यही अवलोकन और विलोकन है। कितनी मर्यादा और ऊँचाई है इन शब्दों में।
लौकना और देखना में कितना सूक्ष्म अंतर है इसे यों समझा जा सकता है –

हमारे बुंदेलखण्ड के गाँवों में महिलाएँ कहतीं हैं – हमारे
सिर में से जूँ ‘ हेर ‘ दीजिए। यानि गौर से देखिए तभी वह छोटा – सा जूँ आपको दिखाई देगा ।

वहीं महात्मा कबीर आज से छैः – सात सौ साल पहले इस ‘हेर ‘ शब्द का प्रयोग कितने गूढ़ अर्थ में करते हैं…उसे भी देख तनिक देख लीजिए –
हेरत – हेरत हे सखी , रहा कबीर हिराय ।
बूँद समानी समुद में , सो कत हेरी जाय।।

हेरत – हेरत क्यों फिरै , एक बेर कैं हेर ।
समुंद समाना बूँद में , हेर सकै तौ हेर ।।

यह ‘ हेर ‘ और ‘हेरना ‘ कितना व्यापक तकनीकी शब्द है आप समझ ही गए हैं। यही है लोक बोलों का वैशिष्ट्य।

मेरा मत है कि लोक बोलियों के शब्दों के समावेश से हिन्दी और भी समृद्ध होगी। दूध – बताशे की तरह घुल जाने दीजिए उन्हें भाषा में ।

लोकबोलियों और लोकभाषाएँ अपने आदिम युग से ही सदैव संस्कृति को समृद्ध करतीं रहीं हैं। लोकबोलियाँ तो अविरल सदानीरा हैं…रसवंती धाराएँ हैं..। उन्हें निर्बाध बहने दीजिए… उनके बहते रहने में ही जीवन है ….. ।
‘ भाषा बहता नीर ‘ का अभिप्रेत भी यही है। यही उसकी अर्थवत्ता भी है…।

हो सकता है भाषा की शास्त्रीयता के पक्षधर विद्वानों को मेरा यह मत अटपटा और औचित्यहीन लगे …?

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