काशीपुर । उत्तराखंड में कांग्रेस को कांग्रेस का विरोध ही गर्त में धकेल रहा है। बिडम्बना यह है कि पार्टी के पास सर्वमान्य नेता होने के बावजूद ताश के पत्तों की तरह बिखर रही है। आज भी कांग्रेस ऐसे नेता को तरस रही है जो दिवंगत नारायण दत्त तिवारी की तरह पार्टी को एकजुट रख सके। हरीश रावत इस पैमाने पर खरे उतरते हैं लेकिन कुछ क्षत्रप अपनी महत्वाकांक्षाओं की खातिर पार्टी को पलीता लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह से पहले किशोर उपाध्याय के अध्यक्षत्व जब हरीश रावत की सरकार थी तो पार्टी को गर्त में धकेलने की शुरुआत हुई।
ग्यारह विधायकों तक पहुंचाने के बाद भी कांग्रेस के क्षत्रप नहीं चेते। अब जब सत्ता में नहीं है तब भी क्षत्रपों की बयानबाजी नहीं थम रही। अब यह समझ नहीं आता कि सत्ता न होने की बात भुलाकर खुद को पार्टी का तारणहार साबित की जा रही है। पार्टी के इन क्षत्रपों को यही बात समझनी होगी कि पार्टी को ग्यारह विधायक तक पहुंचाने में इन्हीं का योगदान रहा है।
इंदिरा ह्रदयेश और हरीश रावत इस समय उत्तराखंड कांग्रेस के दो मजबूत स्तम्भ हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तराखंड में कांग्रेस की राजनीति इन्हीं दोनों नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती है। बाकी नेता इन दोनों दिग्गजों के सिपहसलारों की तरह हैं। हरीश रावत या इंदिरा ह्रदयेश ये दोनों नेता कांग्रेस के उत्थान और पतन के जिम्मेदार हैं। इंदिरा ह्रदयेश जहाँ उत्तराखंड की उस परंपरा की नेता हैं जिसे नारायण दत्त तिवारी ने स्थापित किया था।
राजनैतिक कौशल से परिपूर्ण इंदिरा ह्रदयेश अपने आप में मजबूत नेता हैं और प्रदेश की कांग्रेसी राजनीति में उनका दखल महत्वपूर्ण है। तो दूसरी तरफ खांटी पर्वतीय नेता के रूप में हरीश रावत कांग्रेस के लिए संजीवनी की तरह है। पर इन दोनों नेताओं के नाम पर बन गये गुट उत्तराखंड में कांग्रेस को नुकसान पहुंचा रहे हैं। हालांकि दोनों ही नेता प्रकट में इस बात से इंकार करते हैं। पर हकीकत को अगर स्वीकार लें तो कांग्रेस की स्थिति राज्य में सुधर सकती है।
2022के चुनाव तक पहुंचने से पहले कांग्रेस को अपने इन दोनों नेताओं को साधना होगा यदि ये दोनों नहीं सधे और अपनी ढपली अपना राग अलापते रहे तो हालात और बिगड़ सकते हैं। (जारी)