विनोद भगत
नारायण दत्त तिवारी जहाँ एक कुशल प्रशासनिक क्षमता के धनी थे तो दूसरी तरफ राजनैतिक कौशल के योद्धा थे। 18 अक्तूबर 1925 को जन्मे एनडी तिवारी का देहांत भी उनके जन्मदिवस पर हुआ। ये भी एक संयोग है। जीवन भर यश प्राप्त करते रहे तो जीवन के अंतिम दौर में उन्हें सामाजिक प्रताड़ना का भी शिकार होना पड़ा। लेकिन एन डी तिवारी था उन्होंने अपनी सामाजिक प्रताड़ना को दरकिनार करते हुए 89 वर्ष की आयु में अपने जैविक पुत्र की माता से विवाह कर एक साहसिक कदम उठाकर सबको शांत कर दिया।
उनका राजनीतिक कार्यकाल क़रीब पाँच दशक लंबा रहा। तिवारी के नाम एक ऐसी उपलब्धि है जिसकी मिसाल भारतीय राजनीति में शायद ही मिले। वह ऐसे शख्स थे जो किस्मत के धनी भी थे और इसके विपरीत उनकी किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। ये कहा जा सकता है कि उनका जीवन वृत्त विरोधाभासी रहा। यश के साथ अपयश उनके साथ जुड़ा रहा।
एन डी तिवारी दो बार भारत के प्रधानमंत्री बनते बनते रह गये। एक बार सितम्बर 1987 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर बोफोर्स सौदे के छींटे पड़े। तब राजीव गांधी के इस्तीफा देकर उनको प्रधानमंत्री बनाये जाने का विचार बन रहा था। लेकिन तिवारी जी ने यह कहकर प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया कि राजीव गांधी का पद छोड़ने का मतलब उनका अपने ऊपर लगे आरोपों से भागना समझा जायेगा। दूसरी बार 1991 में महज पांच हजार वोटों से वह भारतीय जनता पार्टी के युवा नेता बलराज पासी से चुनाव हार गये थे। यदि उस वक्त वह चुनाव जीत जाते तो उत्तराखंड के पहले सासंद होते जो प्रधानमंत्री पद पर पहुंचते। पर यहां किस्मत उन्हें दगा दे गयी। उत्तराखंड के प्रति उनके मन में अगाध प्रेम था। यहाँ की संस्कृति और विकास के प्रति उनका बेहद लगाव था।
तिवारी जी का राजनीतिक कैरियर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से शुरू हुआ था। पर बाद में वो कांग्रेस से जुड़ गए।जनवरी 2017 में उन्होंने अपने बेटे रोहित शेखर के साथ भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया था।
नारायण दत्त तिवारी को उनकी ही पार्टी के लोग ‘नथिंग डुइंग तिवारी’ कह कर भी पुकारते थे और विरोधी ‘ये न हैं नर, ना हैं नारी, ये हैं नारायण दत्त तिवारी’ कह कर उनका उपहास भी उड़ाया करते थे।
नारायण दत्त तिवारी शायद भारत के अकेले राजनेता थे जिन्हें दो राज्यों (उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड) का मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
वो हर मुश्किल परिस्थिति को बहुत कोमलता के साथ ‘हैंडल’ करते थे। वो चाहे अयोध्या जैसा मामला हो या उत्तर प्रदेश के दंगे हों या कितना भी कठिन मामला हो, पहले तो वो मुस्कराते। उनकी वह मुस्कान विरोधियों को भी भाती थी।
नारायण दत्त तिवारी की स्मरण शक्ति बहुत तीव्र थी। वो किसी से एक बार मिल लेते तो फिर कभी भूलते नहीं थे।
उनके आफिस या मंत्रालय का स्टाफ हो या उनके संसदीय क्षेत्र के लोग वह उसे नाम से पुकारते थे। यहाँ तक कि भीड़ में किसी को देखते ही वह उसे नाम से पुकार कर बुला लेते थे। यह उनकी चमत्कारी स्मरण शक्ति ही थी।
उनके संसदीय क्षेत्र के लोग उन्हें बहुत प्रिय थे। काशीपुर उनकी कर्मभूमि रहा था। यहीं से उनका राजनैतिक नाता रहा। शहर के तमाम लोग पक्ष और विपक्ष समान रूप से से उन्हें सम्मान देता रहा। प्रतिवर्ष उनके जन्म दिन (अब मृत्यु दिवस भी) काशीपुर में हवन पूजन किया जाता था। उनके अनन्य सहयोगी स्व सत्येन्द्र चंद्र गुड़िया ने हवन पूजन की परंपरा शुरू करायी थी जो अनवरत जारी रही।