
वरिष्ठ पत्रकार जाने माने आलोचक
मप्र विधानसभा चुनाव से पहले ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का गला बैठ गया है।गला क्या लगता है कि दिल भी बैठ गया है, तभी तो दोनों को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के सामने लज्जित होना पड़ा।
गत 2018 के विधानसभा चुनाव में धूल चाट चुकी भाजपा को माननीय ज्योतिरादित्य सिंधिया की बिभीषणाई से सत्ता तो दोबारा मिल गई लेकिन अब फिर जनादेश हासिल करने में भाजपा को पसीना आ रहा है। स्वाभाविक भी है भाजपा का भय । बेचारे शिवराज सिंह चौहान काठ की हांडी साबित हो चुके हैं। उन्हें फिर से आग में कूदने को कहा गया है, तो डर लगना स्वाभाविक है।
एक खुशनसीब मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज सिंह चौहान के लिए बीते तीन साल में पार्टी को एक टीम के रूप में मजबूत करने में कामयाबी नहीं मिली। जेपी नड्डा ने इस हकीकत को न सिर्फ जान लिया बल्कि पार्टी मंच पर सार्वजनिक रूप से कह भी दिया। नड्डा चूंकि अमित शाह नहीं हैं इसलिए जो बात सख्ती से कही जाना थी उसे शिकायती लहजे में कहा गया। वीडी और शिवराज की जोड़ी के लिए नड्डा की टीप चुल्लू भर पानी में डूबने जैसी बात है ।
प्रदेशाध्यक्ष के रूप में वीडी शर्मा निरंतर मेहनत कर रहे हैं, किंतु नरेंद्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया तथा दूसरे नेताओं को नाथने में वे नाकाम रहे।उनकी हैसियत छत्रपों को डाट -डपट करने की बन ही नहीं सकी। आखिर वे एक कनिष्ठ नेता हैं, सिंधिया या तोमर को आंखें नहीं दिखा सकते। मुख्यमंत्री की लालसा रखने वाले दूसरे भाजपा नेता भी वीडी के काबू से बाहर हैं।
विधानसभा चुनाव में उतरने से पहले भाजपा के टीम वर्क की पोल खुलने से कार्यकर्ताओं के मनोबल पर क्या असर होगा ये कल्पना की जा सकती है। पार्टी की कोर कमेटी की सक्रियता को लेकर पार्टी अध्यक्ष ने सवाल उठाया है और किसी ने कोई सफाई नहीं दी, क्योंकि हकीकत तो आखिर हकीकत होती है।
भाजपा में। शामिल होने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीते तीन साल में अपने आपको भले मजबूत कर लिया हो लेकिन उनके आने से पार्टी को कोई बड़ा लाभ नहीं हुआ। विधानसभा के उपचुनाव में सिंधिया समर्थक नेता हारे लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उन्हें भी बर्दाश्त करना पड़ा। स्थानीय निकाय चुनाव में भाजपा को भारी नुक्सान हुआ लेकिन किसी ने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली। क्योंकि टीम भावना से किसी ने काम ही नहीं किया।
मप्र में भाजपा सरकार की स्थिति अब पहले जैसी नहीं रही।2003,2008, और 2013 के विधानसभा चुनाव भाजपा ने जिस आसानी से जीते थे वैसा करिश्मा न 2018 मे हो सका और न ही 2023 में ऐसे किसी करिश्मे की सूरत नज़र आ रही है।
हाल ही में कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द होने के बाद चुनावी परिदृश्य में अप्रत्याशित रूप से तब्दीली आने की संभावना है। सिंधिया के स्वभाव से आजिज लोग भाजपा छोड़ कांग्रेस में अपना ठिकाना बनाने लगे हैं। भाजपा में अपने आपको असुरक्षित मानने वाले लोग चुनाव से पहले बड़ी संख्या में पार्टी छोड़ सकते हैं।बैठे गले और दिल के नेता इस भगदड़ को कैसे रोक सकते हैं, ये कोई नहीं जानता।
आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा के निशाने पर अजेय कमलनाथ हैं। सिंधिया को भाजपा अपना चुकी है।
दिग्विजय सिंह भाजपा की गिरफ्त से बाहर हैं।ले-देकर कमलनाथ ही बचे हैं जो भाजपा की राह का सबसे बड़ा रोड़ा हैं। कमलनाथ को घेरने के लिए खुद अमित शाह ने कमर कसी है, क्योंकि वे जानते हैं कि शिवराज सिंह चौहान या वीडी शर्मा कमलनाथ का बाल बांका नहीं कर सकते। पिछले आम चुनाव में भी भाजपा के लिए छिंदवाड़ा की लोकसभा सीट अलभ्य ही रही।
भाजपा अतीत में ज्योतिरादित्य सिंधिया को पराजय का स्वाद चखा चुकी है। दिग्विजय सिंह भी 2003 में पराजय का स्वाद चख चुके हैं। अकेले कमलनाथ ही बचे हैं।जब तक कमलनाथ मप्र में हैं तब तक वीडी शर्मा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का गला तथा दिल बैठा ही रहने वाला है।इस चुनाव में मोदी जी का जादू भी शाय़द ही चले।2018 में प्रदेश की जनता ने मोदीजी की बात आखिर अनसुनी की ही थी।
@ राकेश अचल