
गंगा एवं यमुना जैसी सदानिराओं का मायका हिमालय अपने में समेटे हुये अपार जनसंसाधन एवं पानी का शक्ति के रूप में बदलने के लिये उपयुक्त ढलान के कारण जल विद्युत उत्पादन के लिये एक आदर्श क्षेत्र माना जाता रहा है, प्रदेश हित में इस अमूल्य संसाधन के न्यायसंगत दोहन की आवश्यकता भी है, लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था और मुर्गी का पेट फाड़ कर अंडे निकालने की प्रवृत्ति के चलते वही आदर्श परिस्थितियां आज उत्तराखण्ड हिमालय के वासियों के लिये आफत का कारण बन गयी हैं। उत्तराखण्ड के उच्च हिमालयी क्षेत्र में छोटी बड़ी बिजली परियोजनाओं का अंधांधुध आबंटन किये जाने से निजी क्षेत्र की कंपनियां पहाड़ों का बेतहासा कटान करने के साथ ही सुरंगें खोद कर पहाड़ों के सीनें छलनी कर रही हैं। बिजली और धन की हवस ने हिमालय के हिमक्षेत्र को अशांत कर दिया है जिसका नतीजा धौलीगंगा और ऋषिगंगा की बाढ़ के रूप में सामने आ गया है। परियोजनाओं के आबंटन में खुले भ्रष्टाचार की शिकायतें आम हो गयी हैं। पहले वन माफिया ने वनों का विनाश किया तो अब बिजली कंपनियां पहाड़ों पर जुल्म ढा रही हैं। केदारनाथ की आपदा के संदेश को भी बिजली परियोजनाओं की बंदरबांट करने वालों ने अनसुना कर दिया गया। केदारनाथ आपदा से सबक लेने के बजाय पुनर्निर्माण के नाम पर वहां इतना भारी निर्माण करा दिया गया जो कि भविष्य के लिये दूसरी आपदा का कारण बनेगा। यही बदरीनाथ का हुलिया बिगाड़ने की तैयारी चल रही है। आलवेदर रोड के नाम पर पहाड़ों का सत्यानाश तो कर ही दिया है।
बिजली परियोजनाओं के विरोध में सन्तों के बलिदान उत्तराखण्ड में बिजली परियोजनाओं का विरोध नया नहीं है। गांधीवादी पर्यावरणविद सुन्दर लाल बहुगुणा टिहरी बांध के खिलाफ लम्बी लड़ाई लड़ चुके हैं। उन्होंने बांध के खिलाफ 74 दिन लम्बी भूख हड़ताल की थी। प्रख्यात पर्यावरण विज्ञानी डा0 जी. डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञान स्वरूप सानन्द ने गंगा की अविरलता और बिजली परियोजनाओं के विरोध में 111 दिन की भूख हड़ताल के बाद प्राण त्यागे थे। उन्होंने वर्ष 2012 में भी इसी तरह एक लम्बी भूख हड़ताल की थी। इस उद्देश्य के लिये हरिद्वार के मातृ सदन के स्वामी निगमानन्द ने 73 दिन की भूख हड़ताल के बाद 13 जून 2011 को प्राण त्यागे थे। चिपको आन्दोलन के प्रणेता चण्डी प्रसाद भट्ट स्वयं उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बिजली परियोजनाओं का निरन्तर विरोध करते रहे हैं। उन्होंने काफी पहले अलकनन्दा और नीती घाटी के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बिजली परियोजनाओं से संभावित पर्यावरणीय और अन्य खतरों के प्रति आगाह कर दिया था। यह सही है कि विकास की जरूरतों को देखते हुये उत्तराखण्ड में बिजली परियोजनाओं को भारी जन समर्थन भी प्राप्त है, मगर इस तरह परियोजनाओं की बंदरबांट कर उन्हें अति संवेदनशील उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थापित करने का समर्थन कोई नहीं करता है। आम धारणा है कि इस तरह राज्य के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट की अनुमति भ्रष्टाचारियों की जेबें भरने के बाद ही मिलती है। अगर सुप्रीम कोर्ट ने बिजली प्रोजेक्ट न रोके होते? सर्वोच्च न्यायालय ने केदारनाथ आपदा के बाद उत्तराखण्ड के पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील क्षेत्रों में लगाई जा रही जिन 24 परियोजनाओं पर रोक लगाई थी उनको दुबारा शुरू कराने के लिये केन्द्र एवं राज्य सरकारें पूरा जोर लगा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोकी गयी परियोजनाओं में ऋषि गंगा प्रथम (70 मे0वा0) एवं ऋषि गंगा द्वितीय (35 मे0वा0) के साथ ही लाता-तपोवन (171 मे0वा0) भी शामिल हैं। ये तीनों परियोजनाएं हाल ही में जलप्रलय प्रभावित क्षेत्र में ही स्वीकृत हैं। अगर कोर्ट द्वारा इनको रोका गया न होता तो आज धौलीगंगा की बर्फीली बाढ़ की विभीषिका अकल्पनीय हो सकती थी। बाढ़ में क्षतिग्रस्त होने वाली एक निजी कंपनी की मूल ऋषिगंगा परियोजना 2013 में सुप्रीमकोर्ट की रोक से तो बची मगर 2016 में बादल फटने के बाद आयी बाढ़ से नहीं बच पायी और यह जब दूसरी बार बन कर तैयार हुयी तो 7 फरबरी को दुबारा बाढ़ में बह गयी। इस उच्च हिमालय क्षेत्र की रोकी गयी लाता-तपोवन परियोजना में 7.51 किमी लम्बी हेड रेस और 320 मी0 टेल रेस सुरंगें बननी थीं। अब कल्पना की जा सकती है कि इन सुरंगों के लिये अति संवेदनशील क्षेत्र में कितने विस्फोट होते और सुरंगो से निकला मलबा बाढ़ को कितना भयंकर बना देता।
पहले भी पावर हाउस बहते रहे ऋषिगंगा प्रोजेक्ट के अलावा भी उत्तरकाशी में कालीगंगा पर बना प्रोजेक्ट 2013 की बाढ़ में बह गया था जिसका हाल ही में पुनर्निमार्ण हुआ और मुख्यमंत्री ने स्वयं उसका उद्घाटन किया। इसी प्रकार उसी दौरान केदारनाथ घाटी की बाढ़ में रामबाड़ा का प्रोजक्ट पूरी तरह नष्ट हो गया था। उत्तराखण्ड राज्य के गठन के समय नये राज्य को 23 लघु जलविद्युत परियोजनाएं मिली थीं जिनमें से लगभग सभी आज गायब ही हैं। अत्यधिक ढाल के कारण बहुत ही तेज गति से बहने वाले नदी नालों पर बनी ये परियोजनाऐं दूसरी बरसात में बह जाती हैं फिर भी सरकार में बैठे लोग निजी स्वार्थों से प्रेरित हो कर ऐसे नालों पर नयी परियोजनाएं आंबंटित कर देते हैं। इन छोटी योजनाओं के मलबे ने पहाड़ों में त्वरित बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाने के साथ ही अलकनन्दा और भागीरथी नदियों का रिवरबेड भी ऊंचा किया जिससे नदियों का रुख प्रभावित हुआ है।
छोटी परियोजनाओं में पर्यावरण की छूट का बड़ा खेल आंखमूंद कर राजस्व कमाने की होड़ के साथ ही भ्रष्टाचार की पराकाष्टा ने राज्य के अपार जलसंसाधनों की लूट खसोट और कच्चे पहाड़ों को बेरहमी से काटने और छेदने की छूट दे दी है। भारत सरकार के नियमों के अनुसार 25 मेगावाट से कम क्षमता की बिजली परियोजनाओं के लिये पर्यावरणीय क्लीयरेंस की कोई जरूरत नहीं है। इसी प्रकार एक हजार करोड़ से कम लागत की परियोजनाओं के लिये भी केन्द्र सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। इसी ढील का लाभ उठा कर निजी कंपनियों के हाथों छोटी परियोजनाओं का बेतहासा आबंटन होता रहा और निजी कंपनियां शासन-प्रशासन में बैठे लोगों से मिलभगत कर बलबूते हिमालय पर बेरोकटोक अत्याचार करते रहीं। नन्दादेवी बायोस्फीयर रिजर्व से लगी फूलों की घाटी के निकट निजी कंपनी को आबंटित भ्यूंडार बिजली परियोजना की क्षमता 24.3 मेगावाट से कम रखे जाने का मकसद समझा जा सकता है। किसे पता कि इतने संवेदनशील क्षेत्र में लगने वाली इस परियोजना की वास्तविक क्षमता 25 मेगावाट से कम ही होगी। वैसे भी कोई परियोजना कभी भी पूरी क्षमता से बिजली उत्पादन नहीं करती। बिजली परियोजनाओं को निजी कंपनियों को बेचने से ‘‘हींग लगे ना फिटकरी रंग चोखा-चोखा जाय’’। निजी कंपनियां निजी जेबों का भी पूरा खयाल रखती है। आखिर एक विधानसभा सीट पर चुनाव लड़ने के लिये पांच-दस करोड़ तो जेब में चाहिये हाते हैं। पार्टी फण्ड के अलावा नेताओं को नोटों से तोलना भ्ज्ञी होता है। उत्पादनरत परियोजनाओं के अलावा सरकार द्वारा निजी कंपनियों को विकास के लिये आंबंटित कुल 33 नयी परियोजनाओं में से 24 परियोजनाएं 25 मेगावाट से कम क्षमता की होने से स्वतः ही उन्हें अति संवेदनशील क्षेत्रों में भी पर्यावरणीय बंधनों से मुक्त करा दिया गया। नवम्बर 2010 में जब इसी तरह की 56 बिजली परियोजनाओं के आंबटन में भ्रष्टचार की शिकायत हाइकोर्ट तक पहुंची तो राज्य सरकार को कोर्ट में सुनवाई से पहले स्वयं ही सारे आबंटन रद्द करने पड़े थे। तब एक शराब माफिया की कंपनियों को भी बिजली परियोजनाएं बांटी गयीं थीं। उस समय शराब व्यवसाय के बेताज के बादशाह के दाये हाथ माने जाने वाले को सरकार राज्यमंत्री स्तर का पद भी दे दिया गया था।राज्य में इस समय कुल 37 छोटी बड़ी परियोजनाएं उत्पादनरत् हैं और उनमें भी 18 परियोजनाएं निजी हाथों में हैं। वर्तमान में राज्य सरकार के उपक्रम यूजेवीएनएल को 2723.8 मेगावट क्षमता की 32, केन्द्रीय उपक्रमों को 5801 मेगावाट की 32 और निजी क्षेत्र की कंपनियों को 1360.8 मेगावाट की 33 परियोजनाऐं विकसित करने के लिये आबंटित की गयी हैं। इन 9885.6 मेगावाट की 97 आबंटित परियोजनाओं में से ही 24 को सुप्रीम कोर्ट ने रोका हुआ है। जिन्हें खुलवाने के लिये सरकार ने अदालत में दिये शपथ पत्र में कहा है कि राज्य बिजली की गंभीर किल्लत से जूझ रहा है और उसे प्रति वर्ष हजार करोड़ की बिजली खरीदनी पड़ रही है।
चिपको की जन्मस्थली रेणी वासियों की पुकार नहीं सुनी गयी चिपको आन्दोलन की जन्मस्थली रेणी गांव के निकट ऋषिगंगा पर बिजली परियोजना का निर्माण वर्ष 2007 में उत्तराखण्ड में खण्डूड़ी सरकार के कार्यकाल में शुरू होते ही आशंकित ग्रामीणों ने उसका विरोध शुरू कर दिया था। वर्ष 2008 में परियोजना क्षेत्र में भूस्खलन से भारी क्षति पहुंची तो कुछ समय के लिये काम बंद होने के बाद पुनः 2009 में इस पर काम शुरू करा दिया गया। फिर 2010 में भूस्खलन से इस परियोजना के 3 मजदूर मारे गये। कुछ समय काम रुकने के बाद 2011 में इस पर एक बार फिर काम शुरू हुआ तो फिर हादसा हो गया जिसकी चपेट में आने से परियोजना के मालिक लुधियाना निवासी राकेश मेहरा की मौत हो गयी। इस हादसे के बाद क्षेत्रवासियों की चिन्ताएं बढ़नी स्वाभाविक ही थी। इसलिये ग्रामीणों ने न केवल ऋषिगंगा के मूल प्रोजेक्ट अपितु जेलम-तमक, मलारी-लेलम, लाता-तपोवन आदि सभी परियोजनाओं का आबंटन निरस्त करने की मांग उठाई मगर यह मांग भी नक्कारखाने की तूती बन गयी। ग्रामीणों ने प्रदर्शन भी किये और वे हाइकोर्ट तक गये मगर उत्तराखण्ड सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। यह परियोजना 2016 में भी बाढ़ की चपेट में आ गयी थी। सुरंगों से छलनी होता हिमालय टिहरी बांध के बाद जनविरोध को देखते हुये अब बांध की जगह बैराज वाली रन ऑफ द रिवर परियोजनाएं ही चलनी हैं। इतनी सारी परियोजनाओं की मुख्य निर्माण गतिविधियां पहाड़ों के गर्भ में सुरंग आदि के रूप में होनी हैं। उत्तरकाशी में मनेरी भाली प्रथम में 8.6 किमी और द्वितीय चरण में 16 किमी, विष्णु प्रयाग में 11.33 किमी सुरंगें पहले बन चुकी हैं। इनके अलावा कई अन्य सुरंगें पहले ही बनी हुयी हैं अभी हिमालय के अंदर सेकड़ों किमी लम्बी सुरंगें प्रस्तावित हैं, जिनमें विष्णुगाड-पीपलकोटी की 13.4 किमी, लाता तपोवन में 7.51 किमी तथा मलारी-जेलम की 4.5 किमी सुरंगें भी शामिल हैं। कुल मिला कर उत्तराखण्ड हिमालय के पहाड़ों के अन्दर लगभग 700 किमी लम्बी सुरंगें बननी हैं। सुरंगों के मलब का निस्तारण भी एक समस्या है, लेकिन उस पर सरकार का ध्यान नहीं है।
केदारनाथ के बाद अब बदरीनाथ की बारी हिमालय के साथ भयंकर अत्याचार का ताजा नमूना निर्माणाधीन चारधाम ऑल वेदर रोड भी है जिसके लिये लगभग 50 हजार पेड़ और लाखों झाड़ियां काटी गयी। कोर्ट का हस्तक्षेप तब हुआ जबकि पहाड़ काटने का 70 प्रतिशत काम पूरा हो गया। केदारनाथ में पुनर्निर्माण के नाम पर वहां सीमेंट कंकरीट का ऐसा ढांचा खड़ा कर दिया जिसनेे भूगर्ववेताओं की भी चिन्ता बढ़ा दी। केदारनाथ के बाद अब बदरीनाथ का भी हुलिया बिगाड़ने का प्लान बन चुका है। स्थानीय प्ररस्थितियों की अनदेखी कर बदरीनाथ के लिये बना नया मास्टर प्लान इस इको फ्रेजाइल (पर्यावरणीय संवेदनशील) क्षेत्र में हादसों का आमंत्रण माना जा रहा है।