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दूषित पानी की वजह से सांभर झील में हजारों पक्षियों की मौत

उचित देखरेख न हो पाने, अनधिकृत व्यावसायिक गतिविधियां बढ़ने आदि के चलते प्राकृतिक जलस्रोतों के खत्म होते जाने, उनमें पलने वाले जलजीवों या वहां आश्रय पाए पंछियों, वन्यजीवों आदि का जीवन संकट में पड़ने को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। मगर प्रशासन के स्तर पर इस दिशा में कभी संजीदगी नहीं दिखाई गई। इसी का ताजा उदाहरण है राजस्थान की सांभर झील में बड़े पैमाने पर पंछियों का मरना। इस झील के किनारे बसेरा डाले करीब साढ़े अठारह हजार पक्षी अब तक दूषित जल पीने की वजह से दम तोड़ चुके हैं। साढ़े सात हजार से ऊपर पक्षियों को उपचार के लिए भेजा जा चुका है।

इस घटना को लेकर स्थानीय लोगों ने संबंधित विभागों के अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया, पर हैरानी की बात है कि वहां का वन विभाग और पशुपालन विभाग इसकी जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डालते रहे। जब यह मामला राजस्थान उच्च न्यायालय के समक्ष पहुंचा तो न्यायमित्र ने इस मामले में हुई लापरवाही की परतें खोलीं। झील के पानी में ई-कोलाई, भारी धातुएं और बैक्टीरिया का संक्रमण पाया गया। प्राथमिक जांच से यह भी पता चला कि झील से नमक उत्पादन करने वाली कंपनी और सैलानियों को आकर्षित करने की मंशा से वहां शुरू की गई व्यावसायिक गतिविधियों के चलते झील का पानी प्रदूषित हुआ। इसे लेकर राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायमित्र ने अदालत को कुछ सुझाव दिए हैं, जिन पर अगर अमल किया गया तो सांभर झील की दशा कुछ सुधरने की उम्मीद की जा सकती है।

सांभर अकेली ऐसी झील नहीं है, जहां सैलानियों को आकर्षित करने के लिए उसके किनारे रेस्तरां, मोटेल, खेल-कूद, मनोरंजन आदि की गतिविधियां शुरू की गई हैं। सांभर राजस्थान की बहुत पुरानी झील है, जिसमें नमक भी पाया जाता है। वहां नमक बनाने का कारोबार पुराना है। मगर जिस तरह राज्य सरकारें पर्यटन को बढ़ावा देने के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का जम कर दोहन करती हैं, राजस्थान सरकार ने भी सांभर के आकर्षण को भुनाने के लिए उसके किनारों पर व्यावसायिक गतिविधियों को बढ़ावा देना शुरू किया। प्राकृतिक स्थलों को पर्यटन के लिए खोलना बुरी बात नहीं है, पर उनके संरक्षण पर उचित ध्यान न दिए जाने के कारण जो समस्याएं पैदा होती हैं, उसके लिए आखिरकार सरकारों को ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा।

ओड़ीशा में चिल्का और चंडीगढ़ में सुखना दो ऐसी झीलें हैं, जो सैलानियों के आकर्षण का केंद्र हैं, वहां व्यावसायिक गतिविधियां भी चलती हैं, पर उनके संरक्षण का उचित प्रबंध है। सांभर को लेकर ऐसी चिंता शायद कभी नही की गई। इसीलिए वहां नमक बनाने वाली निजी कंपनियों की पैठ बढ़ती गई।

अब सांभर में पैदा संकट से निपटने के लिए सभी एजेंसियां सक्रिय कर दी गई हैं, देश भर से विशेषज्ञ बुलाए गए हैं, पशु चिकित्सक, स्वयंसेवी संगठन आदि तैनात कर दिए गए हैं। मगर अदालत के समक्ष जो सुझाव पेश किए गए हैं, जब तक उन पर गंभीरता से अमल नहीं किया जाएगा, इस समस्या का स्थायी समाधान शायद ही निकल पाए।

सांभर के संरक्षण के लिए चिल्का की तरह का तंत्र विकसित करने, वहां चल रहे नमक बनाने के निजी ठेकों को समाप्त करने, उच्च क्षमता वाले ड्रोन कैमरों से निगरानी रखने के सुझाव हैं। ऐसी कई झीलें अब तक या तो सूख चुकी हैं या उन पर अवैध कब्जा हो चुका है। अगर सांभर की अनदेखी की गई, तो उसका हश्र भी वैसा ही न हो जाए।

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