सच्चाई ये है कि धूर्त राज्य विरोधी ताकतें सत्ता की मलाई चाट रही हैं, और राज्य के लिए विज़न रखने वाले हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। हिमाचल प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री वाई एस परमार जैसे विज़नरी मुख्यमंत्री ने राज्य की बेहतरी को ध्यान में रखते जो जनोन्मुखी नीतियां बनाई, उसका फायदा आज भी राज्य को मिल रहा है।
प्राइवेट प्रतिष्ठानों में स्थानीय लोगों को 70% रोज़गार की अनिवार्यता पर उत्तराखंड की सरकारों का रुख अभी तक ढुलमुल ही रहा है। हालांकि, पड़ोसी पहाड़ी राज्य हिमाचल इस अनिवार्यता को बखूबी लागू किये हुए है। यही वजह है कि आज आपको दिल्ली जैसे महानगरों में हिमाचल के लोग नाममात्र को ही मिलेंगे।
आजकल देवप्रयाग में शराब का प्लांट खोले जाने की चर्चा भी है। सरकार बड़े जोर-शोर से इस प्लांट को स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार का साधन बता रही है। खोलिये सरकार और 10-20 ऐसे और प्लांट खोल दीजिये। लेकिन, पहाड़ के स्थानीय फलोत्पाद के लिए प्रसंस्करण प्लांट कब खोलेंगे आप। क्या वो सरकार की कार्यसूची में नहीं है।
उत्तराखंड की सरकारें यदि पलायन के कारकों की विवेचना करती, तो शायद उसे ये भी समझ आ जाता कि बैगेर ‘जन’ को केंद्र में रख किसी भी ‘पक्ष’ का फायदा नहीं हो सकता। तब शायद, पलायन आयोग गठित करने की नौबत भी नहीं आती।