देवप्रयाग, व्यासी और तीन धारा पर्यटन यात्रियों को संतुष्टि देने के बड़े लुभवाने केंद्र हो सकते थे। हम करते क्या है जरा सोचिए। खराब या अधपके परांठे औऱ बार-बार पानी डालकर बनाए छोले। बेस्वाद खाना परोसते हैं। लगता है जैसे सुबह एक बार में सौ पराठें बना दिए और वही शाम तक बेचे जा रहे हैं।
ऊपर से दुकानों की सफाई, बाबा आदम के जमाने से नहीं हुई। कटोरी भी तीन पुश्त पुरानी। न चटनी, न अचार। खाना हो तो खालो यार जैसी फीलिंग।परोसने का तरीका ऐसा जैसे अहसान कर रहे हो खिलाकर। सड़ी हुई चाय। ठीक करते है पंजाब के सिख। माचिस भी अपनी ही लेकर चलते हैं। हेमकुंड साहिब की यात्रा में अपना पूरा सामान लेकर चलते हैं। क्यों आपसे लुटे, क्यों बेस्वाद गंदा खाना खाएं। क्यों अापके बेरुखेपन से अपनी यात्रा का मजा खराब करे। बात केवल देवप्रयाग और व्यासी की नहीं। ये हालत उत्तराखंड में कदम-कदम पर है। हम जब तक पर्यटकों या ग्राहक को मजबूर समझेंगे, उन्नति नहीं करेंगे।
केदारनाथ बद्रीनाथ में भी मैगी। मैगी भी ऐसी जैसे चिपकाने वाली लेई बनी हो। यात्रियों की सुविधा के लिए लाठी, मगर कितने की, चालीस रुपए की। देवभूमि में ऐसा कारोबार ठीक नहीं। प्रतिष्ठा गिरती है। अपने पहाड़ के व्यंजनो का तो प्रचार कर नहीं पाए। दूसरों की चीजेे भी ढंग से नहीं बना पाते हैं। पकोडी वो भी अधजली, अधपकी। पानी में तरबतर चटनी। तीन चीजें बिकने के लिए रखी हुई।
पौडी का बाजार। होटलों का फरमान। रुकना है तो रुको पर पानी नहीं है। तीन मुख्यमंत्री दिए इस शहर ने। इनमें एक वो है जो किसी पद पर रहना अपना खानदानी पेशा समझता है। मगर पौड़ी को क्या बना डाला । सतहरवीं शताब्दी का कोई उपेक्षित- सा शहर। उत्तराखंड में जितनी उपेक्षा पौड़ी शहर की हुई उतनी किसी दूसरे शहर की नहीं। साला, अंग्रेज होता तो इस शहर को देश का सबसे खूबसूरत पर्यटन स्थल बनाता। हमने इसे उजाड कर दिया। क्या हालत बनाई है मुनस्यारी जैसे सुंदर पर्यटन स्थल की। कुमाऊं को केवल नैनीताल, हल्द्वानी तक सीमित कर दिया। कोटद्वार के बाजार को सब भूल गए। कोट्द्वार विकसित नहीं हो पाया। वर्षों से जातपात पर अटके हैं। ढंग की लीडरशिप विकसित नहीं कर पाए। कोटद्वार को युवा, सक्षम नेता काम करने वाला नहीं मिल पाया। धिसे-पिटे नेताओं ने कोटद्वार को सदियों पीछे कर दिया।
ड्राइवर-कंडक्टरों की भाषा अजीब। और ऋषिकेश में तो हफ्ते में तीन दिन टैक्सी वालों की हड़ताल। टैक्सी वालों का अजीब सा बर्ताव भी तो अजीब सा है। मानों अहसान कर रहे हों। और मना करने पर श्राप ही दे देंगें।
बहुत बुरा है हरिद्वार के पंडों का हाल। गंगा के किनारे का सुकून छीन लेते हैं।जहां देखो एक पंडे लड़ रहे हैं कि फलां जाति की पूजा का अधिकार उसी का है। तो क्या पंडितों, साधू और संन्यासियों का ही है हरिद्वार।
देहरादूून उत्तराखंड की राजधानी है। बड़े नाम वाली और पहाड़ी में कहें तो सबि धांणि देरादून बल। मगर सात बजे के बाद होटलों और ढाबों में खाना मुश्किल। चारों तरफ मदिरा ही मदिरा। अरहड़ की दाल और रोटी मिल जाए तो गनीमत। क्योंकि, चिकन-मटन की डिमांड जो ठैरी।
कश्मीर ने एक वैष्णों देवी मंदिर के नाम पर हजारों घरों को रोजगार दिया। उत्तराखंड में कदम-कदम पर मंदिर लेकिन वहां जाने के लिए सड़क भी तो हो। बद्री- केदार में लाखों-करोड़ों का दान। मगर इन मंदिरों के जरिए जनसेवा के कितने काम।
बताइए, उत्तराखंड में कौन सी दुकान है जिसके लिए यात्रियों को प्रोत्साहित किया जाए। श्रीनगर रुद्रप्रयाग अल्मोड़ा । अल्मोड़ा की बाल मिठाई भी रंगत खोने लगी है। ऐसा क्या है कि जिसके लिए हम देश-दुनिया से कहें कि उत्तराखंड आए हैं तो फलां दुकान से यह खरीद कर ले जाइएगा।
पूरे देश में उत्तराखंड ही ऐसा अभागा राज्य है जिसमें अपने पहाड़ के खानपान की कोई निश्चित दुकान नहीं दिखती। होटलों में भी चाऊमिन, मोमो। राजस्थान, महाराष्ट्र, केरल उड़ीसा, तमिलनाडू, पंजाब, हिमाचल, अरुणाचल प्रदेश सिक्किम वाले अपना खानपान बेचना जानते हैं, पर्यटन को लुभाना जानते हैं।
चीजों की बढी हुई कीमतों को देखना हो तो मसूरी के बाजार को देखिए। दुकानदारों की मानसिकता यही है कि जो आज आया है वो फिर आए न आए। बस आज इससे जो लेना है ले लो। लेकिन देश-विदेश में किस तरह की छवि बनेगी, यह नहीं जानते।
एक जमाने में पौड़ी का सतपुली बाजार हुआ करता था। वहां के खानपान की चर्चा थी। गाड़ियां रुकती थी वहां। बीस सालों से वहां भी घालमेल। बहुत खराब सा खाना। कहां रह गई सतपुली की मछली चावल की बात। कहां खो गई श्रीनगर की सिंगोड़ी। कहां रह गए कुमाऊं की छोटी छोटी दुकानों में चटनी के साथ परोसे जाने वाले आलू के गुटके। और वो पहाड़ी ककडी का बना रायता। वो भात के साथ घिन्डया मूली का झोल। चकरोता में भी बाहरी लोगों को पनीर पसांदा खिलाओगे। आप अपनी चीज प्रस्तुत नहीं कर पा रहे, इसलिए वो पनीर पसांदा मांगता है।
अगर सुमित्रानंदन पंत की कौसानी चले जाएं तो आपको बस स्टैंड पर खड़े होटल ऐंजेंटों से निपटने का तज़ुर्बा चाहिए। वो भी अच्छा खासा। वरना वो आपको दुनिया का नक्शा बताकर कहेंगे कि जिस होटल में ले जा रहा हूं, उसे ही असल में जन्नत कहते हैं।
पहाड़ी हस्तशिल्प , कला , पैंटिग कहां मिले और कैसे मिले कोई जानकारी नहीं। आपको हो तो जरूर बताएं।
जगह जगह पंजाब की तर्ज पर खुले ढाबे। स्वाद से दूर। पैसे भरपूर। आगरा का पंछी पेठा, मथुरा का बृजवासी पेड़ा, मेरठ का लस्सी वाला, दिल्ली लोकसेवा आयोग के पास चाट वाला और ऐसे ही कुछ नामी ठिकाने। अब आप ही बताइए कि उत्तराखंड के किस बाजार में किस दुकान का नाम लें। कोई परिचित उत्तराखंड आना चाहे तो क्या कहें उससे कहां से क्या ले जाए।
मसूरी का आदमी पर्यटक से नहीं कहता कि चकरौता की राजमा ले जाना, जाते हुए लाखमंडल को भी देख आना। पर्यटक कुछ भी पूछे तो बेरुखी से जवाब। राजस्थानी लड़के याद आते हैं पर्यटक के कुछ पूछते ही पूरा राजस्थान सामने रख देते हैं। हम अपनी सीमाओं से बाहर नहीं सोचते। नैनीताल में खड़ा व्यक्ति नहीं बताता कि कुछ और भी ताल हैं आसपास है। देख आइए। पौड़ी का आदमी खुद ही परेशान कि क्या बताए कि खिर्सू जैसी जगह पास में है।
कितने उजड़े हुए हैं हमारे संगम। देवप्रयाग का संगम आध्यात्मिकता के साथ-साथ सुंदरता में भी अनूठा हो सकता था। यात्रियों की नजर पड़ी तो पडी। बाकी क्या है वहां पर ऐसा जो लोगों का ध्यान खींचे। कौन सा संगम है जिसमें हमने मेहनत करके उस क्षेत्र को सुंदर बनाया हो। रास्ते तक ठीक नहीं। श्रीनगर में अलकनंदा का कितना सुंदर घुमाव। पर क्या ऐसी व्यवस्था हैं कि पयर्टक नदी के तट पर चला आये।