आज उत्तराखंड आंदोलन के जनकवि, गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ की ग्यारहवीं पुण्यतिथि है। गिर्दा उत्तराखंड राज्य के एक आंदोलनकारी जनकवि थे, उनकी जीवंत कविताएं अन्याय के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा देतीं हैं। हर वर्ष मेलों के अवसर पर देशकाल के हालातों पर पैनी नज़र रखते हुए झोड़ा- चांचरी के पारंपरिक लोककाव्य को उन्होंने जनोपयोगी बनाया। इसलिए वे आम जनता में ‘जनकवि’ के रूप में प्रसिद्ध हुए।
आंदोलनों में सक्रिय होकर कविता करने तथा कविता की पंक्तियों में जन-मन को आन्दोलित करने की ऊर्जा भरने का गिर्दा’ का अंदाज निराला ही था। उनकी कविताएं बेहद व्यंग्यपूर्ण तथा तीर की तरह घायल करने वाली होती हैं-
“बात हमारे जंगलों की क्या करते हो, बात अपने जंगले की सुनाओ तो कोई बात करें।”
उत्तराखंड राज्य आन्दोलन से अपना नया राज्य हासिल करने पर उसके बदलाव को व्यंग्यपूर्ण लहजे में बयां करते हुए गिर्दा कुछ इस अंदाज से कहते हैं-
“कुछ नहीं बदला कैसे कहूं, दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले, पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर, और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं।”
गिर्दा राज्य की राजधानी गैरसैण क्यों चाहते थे? उसके समर्थन में वे कहते थे- “हमने गैरसैण राजधानी इसलिए मांगी थी ताकि अपनी ‘औकात’ के हिसाब से राजधानी बनाएं, छोटी सी ‘डिबिया सी’ राजधानी, हाई स्कूल के कमरे जितनी ‘काले पाथर’ के छत वाली विधानसभा, जिसमें हेड मास्टर की जगह विधानसभा अध्यक्ष और बच्चों की जगह आगे मंत्री और पीछे विधायक बैठते, इंटर कालेज जैसी विधान परिषद्, प्रिंसिपल साहब के आवास जैसे राजभवन तथा मुख्यमंत्रियों व मंत्रियों के आवास।”
गिर्दा ने अपनी कविता ‘जहां न बस्ता कंधा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा’ के द्वारा देश की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपना नज़रिया रखा तो दूसरी ओर उत्तराखंड की सूखती नदियों और लुप्त होते जलधाराओं के बारे में भी उनकी चिंता ‘मेरि कोसी हरै गे’ के जरिए उनकी कविता नदी व पानी बचाओ आंदोलन के साथ सीधा संवाद करती है।
हिमालय के जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए जीवन भर संघर्षरत गिर्दा के गीतों ने विश्व पर्यावरण की चुनौतियों से भी संवाद किया है। आज बड़े बड़े बांधों के माध्यम से उत्तराखंड की नदियों को बिजली बेचने के लिए कैद किया जा रहा है,जिसकी वजह से नदियां सूखती जा रही हैं, वहां के नौले धारे आदि जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। अनेक नदियों और जल संसाधनों से सुसम्पन्न उत्तराखंड हिमालय के मूल निवासी पानी की बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं।
आज के सन्दर्भ में जब एक ओर समस्त देश जलसंकट की विकट समस्या से ग्रस्त है तो दूसरी ओर जल जंगल का व्यापार करने वाले जल माफिया और वन माफ़िया प्राकृतिक संसाधनों का इस प्रकार निर्ममता से दोहन कर रहे हैं, जिसका सारा ख़ामियाजा पहाड़ के आम आदमी को भुगतना पड़ रहा है। उत्तराखंड में अंधविकासवाद के नाम पर जल, जंगल और जमीन का इतना भारी मात्रा में दोहन हो चुका है कि चारों ओर कंक्रीट के जंगल बिछा दिए गए हैं और नौले, गधेरे सूखते जा रहे हैं, जिसके कारण पहाड़ के मूल निवासी पलायन के लिए मजबूर हैं।
दरअसल, उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पहाड़ी राज्य के विकास की जो परिकल्पना गिर्दा ने की थी वह मूलतः पर्यावरणवादी थी। उसमें टिहरी जैसे बड़े बड़े बांधों के लिए कोई स्थान नहीं था। आज यदि गिर्दा जीवित होते तो विकास के नाम पर पहाड़ों के तोड़ फोड़ और जंगलों को नष्ट करने के खिलाफ जन आंदोलन का स्वर कुछ और ही तीखा और धारदार होता। गिर्दा की सोच पर्यावरण के साथ छेड़-छाड़ नहीं करने की सोच थी। उनका मानना था कि छोटे छोटे बांधों और पारंपरिक पनघटों, और प्राकृतिक जलसंचयन प्रणालियों के संवर्धन व विकास से उत्तराखंड राज्य के अधूरे सपनों को सच किया जा सकता है।
गिर्दा कहा करते थे कि हमारे यहां सड़कें इसलिए न बनें कि वह बेरोजगारी के कारण पलायन का मार्ग खोलें,बल्कि ये सड़कें घर घर में रोजगार के अवसर जुटाने का जरिया बनें। एक पुरानी कहावत है- “पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आनी।” गिर्दा इस कहावत को उलटना चाहते थे. वे चाहते थे कि हमारा पानी,बिजली बनकर महानगरों को ही न चमकाए बल्कि हमारे पनघटों, चरागाहों, लघु-मंझले उद्योग धंधों को भी ऊर्जा देकर खेत खलिहानों को हराभरा रखे और गांव-गांव में बेरोजगार युवकों को आजीविका के साधन मुहैय्या करवाए ताकि पलायन की भेड़चाल को रोका जा सके।
हंसादत्त तिवाड़ी व जीवंती तिवाड़ी के उच्च कुलीन घर में जन्मे गिर्दा का यह फक्कड़पन ही था कि 1977 में वन आन्दोलन को प्रोत्साहित करने के लिए ‘हुड़का’ बजाते हुए सड़क पर आंदोलनकारियों के साथ कूद पड़े। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान भी गिर्दा कंधे में लाउडस्पीकर लगाकर ‘चलता फिरता रेडियो’ बन जाया करते थे और प्रतिदिन शाम को नैनीताल में तल्लीताल डांठ पर आंदोलन से जुड़े ताजा समाचार सुनाते थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी व विराट प्रकृति का था। कमजोर और पिछड़े तबके की जनभावनाओं को स्वर प्रदान करना गिर्दा की कविताओं का मुख्य उद्देश्य था।
‘गिर्दा’ एक प्रतिबद्ध रचनाधर्मी सांस्कृतिक व्यक्तित्व थे। गीत, कविता, नाटक, लेख, पत्रकारिता, गायन, संगीत, निर्देशन, अभिनय आदि, यानी संस्कृति का कोई आयाम उनसे से छूटा नहीं था। मंच से लेकर फिल्मों तक में लोगों ने ‘गिर्दा’ की क्षमता का लोहा माना। उन्होंने ‘धनुष यज्ञ’ और ‘नगाड़े खामोश हैं’ जैसे कई नाटक लिखे, जिससे उनकी राजनीतिक दृष्टि का भी पता चलता है। ‘गिर्दा’ ने नाटकों में लोक और आधुनिकता के अद्भुत सामंजस्य के साथ अभिनव प्रयोग किये और नाटकों का अपना एक पहाड़ी मुहावरा गढ़ने की कोशिश की।