नई दिल्ली। दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले किसी भी दिन दिल्ली विधानसभा चुनाव की घोषणा हो सकती है।आम आदमी पार्टी, भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने तरीके से चुनाव प्रचार शुरू कर चुके हैं। इस काम में सबसे आगे दिल्ली की सत्ता में बैठी ‘आप’ है। उसके नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पिछले चुनावों की तरह बिजली-पानी माफ के बूते चुनाव जीतने की तैयारी में हैं। उधर, करीब 1800 अनधिकृत कॉलोनी के निवासियों को मालिकाना हक दिलाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद देने के नाम पर रामलीला मैदान में रैली करके भाजपा ने चुनाव अभियान की विधिवत शुरुआत कर दी।
भाजपा के लिए बड़ा संकट दिल्ली विधानसभा चुनाव में कोई प्रभावी चेहरा न होना है। लिहाजा भाजपा अभी तक मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं कर पाई है। कई समितियां बनाकर अनेक नेताओं को उलझाए रखने का उपक्रम पार्टी ने किया है। भाजपा जैसी गुटबाजी कांग्रेस में चरम पर है। केंद्र में सरकार होने के चलते भाजपा में तो कुछ दम-खम दिखा रही है लेकिन कांग्रेस तो अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही है। भाजपा 1998 से दिल्ली की सत्ता से बाहर है और कांग्रेस 15 साल लगातार सत्ता में रहकर छह साल बाहर रहने में ही बिखरने लगी है।
‘आप’ लगातार इस प्रयास में लगी हुई है कि जो वर्ग उसके साथ 2013 और 2015 के विधानसभा चुनाव में जुड़ा वह अगले कुछ महीने होने वाले विधानसभा चुनाव में भी जुड़ा रहे। पिछले तीन विधानसभा (हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड) के चुनाव नतीजे भाजपा के अनुकूल नहीं रहे। इसलिए भी दिल्ली चुनाव भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है। कांग्रेस तो मुख्य मुकाबले की लड़ाई लड़ रही है लेकिन भाजपा तो सत्ता पाने की लड़ाई में मानी जा रही है। ‘आप’ की चुनावी तैयारी आक्रामक है, इसका लाभ उन्हें पहले भी मिलता रहा है।
दिल्ली में भाजपा 1998 में दिल्ली सरकार से बाहर हुई। इसका बड़ा कारण भाजपा का वोट समीकरण है। भाजपा खास वर्ग की पार्टी मानी जाती है। 1993 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उसे करीब 43 फीसद वोट मिले तब वह सत्ता में आई। उसके बाद उसका वोट औसत लोकसभा चुनावों के अलावा कभी भी 36-37 फीसद से बढ़ा ही नहीं। 2016 में भोजपुरी कलाकार मनोज तिवारी ने प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद 2017 के निगमों के चुनाव में 32 बिहार मूल के उम्मीदवारों को टिकट दिलवाया जिसमें 20 चुनाव जीत गए। भाजपा की समस्या लोकसभा चुनाव के अलावा विधान सभा और निगम चुनावों में वोट औसत न बढ़ने का है। दूसरा 1998 से ही अब तक भाजपा मुख्यमंत्री का उम्मीदवार ठीक से तय नहीं कर पाई।
दोनों विधानसभा चुनाव और 2017 के निगम चुनाव में तीसरे नंबर पर पहुंच कर कांग्रेस एक तरह से हाशिए पर पहुंच चुकी है। 2015 के बाद के हर चुनाव में ‘आप’ ने कांग्रेस को मुख्य मुकाबले से बाहर करने का प्रयास किया और तब के कांग्रेसजनों ने उसे ज्यादा सफल नहीं होने दिया। अगर निगमों के चुनाव में कुछ बड़े नेता बगावत नहीं करते तो कांग्रेस इस मई के लोकसभा चुनाव जैसा दूसरे नंबर पर होती।
निगम चुनावों के बाद पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अजय माकन ने हालात बेहतर करने के बजाए खराब स्वास्थ्य के चलते पद छोड़ना तय किया। तमाम उठा-पटक के बाद प्रदेश अध्यक्ष बनकर चुनाव लड़ी शीला दीक्षित ने कांग्रेस को लोक सभा चुनाव में भाजपा के मुकाबले ला दिया लेकिन पार्टी की गुटबाजी ने वापस कांग्रेस को वहीं ला दिया, जहां वह 2015 के विधानसभा चुनाव में दस फीसद से कम वोट लाकर पहुंच गई थी। नए प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा और चुनाव अभियान के प्रमुख कीर्ति आजाद में तालमेल ही नहीं बन पा रहा है। चोपड़ा दूसरी बार अध्यक्ष बने वे पहली बार तब अध्यक्ष थे जब पार्टी दिल्ली की सत्ता में थी और कीर्ति आजाद लंबे समय तक भाजपा में रहने के बाद कांग्रेस में सक्रिय हुए हैं।