@शब्द दूत ब्यूरो (15 अक्टूबर 2025)
काशीपुर। दीपावली नजदीक है और इसी अवसर पर हमने काशीपुर के वरिष्ठ नागरिक रामचंद्र प्रजापति से बातचीत की, जिन्होंने अपने बचपन से लेकर आज तक दिवाली के कई रूप देखे हैं। उन्होंने बताया कि पहले की दिवाली सादगी से भरी होती थी, क्योंकि उस समय लोगों की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। मजदूरी बहुत कम थी और साधन सीमित। “पहले हम मिट्टी के दीये जलाते थे, बिजली की लाइटें या झालरें नहीं थीं। आज चाइनीज झालरों और मोमबत्तियों ने दीयों की जगह ले ली है,” उन्होंने कहा।
श्री प्रजापति बताते हैं कि पहले हर घर में सैकड़ों दीये जलते थे — “101 या 200 तक दीये जलाना परंपरा थी।” आज बिजली की झालरों के बढ़ते चलन ने उस दृश्य को बदल दिया है। उन्होंने बताया कि पहले दीयों की बिक्री से जो आमदनी होती थी, अब वैसी नहीं रही, क्योंकि चाइनीज उत्पादों ने बाजार पर कब्जा कर लिया है। हालांकि रेट पहले के मुकाबले काफी बढ़े हैं — “पहले 100 दीये चार या आठ आने में बिकते थे, आज वही ₹80 से ₹100 में बिकते हैं,” वे बताते हैं।
मिट्टी के स्रोत के बारे में उन्होंने कहा कि “काशीपुर में पंडित नारायण तिवारी जी के प्रयास से हमें मिट्टी का स्थान मिला था। कुछ लोगों ने कब्जा करने की कोशिश की थी, लेकिन प्रशासन और स्थानीय नेताओं के सहयोग से आज भी वहीं से मिट्टी मिलती है।”
उन्होंने बताया कि पहले दीयों की तैयारी दिवाली से एक–डेढ़ महीने पहले शुरू कर दी जाती थी। बचपन की दिवाली याद करते हुए बोले, “हम सुबह चार बजे से उठकर रात तक काम करते थे। मेहनत बहुत थी, लेकिन उत्साह भी उतना ही था।”
दिवाली के पारिवारिक और सामाजिक माहौल में आए बदलाव पर श्री प्रजापति ने कहा कि “पहले मोहल्ले, परिवार, सब मिलकर दिवाली मनाते थे। आज भी मनाते हैं, बस फर्क इतना है कि पहले का अपनापन कुछ कम हुआ है।”
बचपन की मिठाइयों और पटाखों को याद करते हुए उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “पहले फुलझड़ियां और दीवार पर मारने वाले छोटे पटाखे चलते थे, अब तो तरह-तरह की आतिशबाजी है।”
अंत में उन्होंने कहा कि “भावनाओं में थोड़ा बदलाव आया है, लेकिन उत्साह आज भी वही है। पहले भी दिवाली खुशियों का त्योहार थी, आज भी है। फर्क बस साधनों का है, भावनाओं का नहीं।”
Shabddoot – शब्द दूत Online News Portal

