@वेद भदोला
अगर आप पहाड़ों की सडकों पर लंबी यात्रा कर रहे हैं, तो सैकड़ों जगहों पर पहाड़ों से मलबा टूट कर गिरा-बिखरा देखेंगे। कहीं कम, कहीं ज्यादा। जगह-जगह राजमार्ग बंद मिलेंगे। स्थानीय संकरे-अधपक्के-कच्चे रास्तों का का भी कमोबेश यही हाल है। पहाड़ी गांवों की जीवनरेखा माने जाने वाले इन रास्तों की दुर्दशा देखनी हो यही सही वक्त है।
जीएसआई यानि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक भूस्खलन के मामले में उत्तराखंड तीसरे नंबर पर है। राज्य के पहाड़ी जिलों में जगह-जगह लैंडस्लाइड के हॉटस्पॉट बन गए हैं। जगह-जगह बने ये घाव गाहे-बगाहे रिसते रहते हैं। हर हफ्ते इतना मलबा आ जाता है कि यातायात बंद करना पड़ता है। बरसातों में यह दिक्कत आपदा की सूरत ले लेती है। जब अमूमन दो-ढाई घंटे का सफ़र छः से दस घंटे तक ले लेता है। शुक्र मनाइए हमारे देश में लोगों के पास खूब समय है वरना पता नहीं जीवन कैसे चलता।
जनता को कम असुविधा हो इसके लिए सरकार ने जगह-जगह जेसीबी और पोकलैंड नाम के दैत्य तैनात किये हुए हैं – मलबा आते ही वे लड़खड़ाते हुए मौक़े पर पहुंचते हैं और सौ मनुष्यों का काम अकेले करते हुए बड़ी-बड़ी चट्टानों को रास्ते से चुटकियों में हटा कर ट्रैफिक को सुचारु बना देते हैं। अवाक जनता हाथ बांधे उनके इस कारनामे को देखती रहती है – विज्ञान की तरक्की पर मुग्ध होती रहती है। एक जगह का मलबा हटता है तो दो जगह और आ जाता है। इन दैत्यों के लिए रोजगार ही रोजगार है!
जब बरसात नहीं होती, मौसम ठीक रहता है तो इन मशीनों को पहाड़ काटने, चट्टानों को भेदने और जवान पेड़ों को नेस्तनाबूद करने के काम में लगा दिया जाता है। सडकों पर पर्याप्त मलबा बिखेर देने के बाद इन मशीनों ने उसे निकटतम नदी-धारे के हवाले कर देना होता है – सारी सड़कें इतनी चौड़ी की जानी हैं कि उन पर से एक साथ दो-दो टैंक गुज़र सकें। आज के नीति-निर्धारकों ने पहाड़ों की उन्नति की यही परिभाषा निर्धारित की है। बाकी विकास के तथाकथित समर्थक बरसात बीत जाने के बाद, एक बार फिर समर्थन में टर्र-टर्र करने लगेंगे।
जिन जगहों पर अब भी पुरानी सड़कें बची रह गई हैं, उनके किनारों पर काटे गए पहाड़ों की सतह पर मजदूरों के सब्बल-गैंतियों के बनाए मानवीय निशान देखे जा सकते हैं। सड़क के उन हिस्सों के आसपास मलबा नहीं के बराबर दीखता है। पचास मजदूर जितना पहाड़ एक हफ्ते में काटते थे, एक जेसीबी उतना पहाड़ आधे घंटे में काट देती है। सब्बल-गैंतियों की चोटों से उतना ही पहाड़ टूटता था जितनी ज़रूरत होती थी। इसके बरअक्स जेसीबी का लौह-पंजा जिस बेरहमी से पहाड़ की सतह को उधेड़ता है या पोकलैंड जिस क्रूरता के साथ साबुत चट्टान को तोड़ती है उसका असर कई मीटर आगे तक की चट्टानों पर पड़ता है।
परतदार चट्टानों से बना यह निचला हिमालयी इलाका है जिसमें कुमाऊं-गढ़वाल की तमाम बस्तियां बसी हैं। एक चट्टान के कांपने का असर कितने किलोमीटर दूर तक जाता होगा, भूवैज्ञानिक बेहतर बता सकेंगे। जल्दबाजी और लापरवाही के साथ पहाड़ में नई बनी या बन रहीं या चौड़ी की जा रही सड़कों पर जगह-जगह दिखाई देने वाला बिखरा हुआ मलबा बताता है कि जो कुछ हो रहा है ठीक तो नहीं है।
चूंकि हमें हर चीज़ का उत्सव मनाने का शौक है कुछ बरस पहले चुनिन्दा महानुभावों ने आज यानी 9 सितम्बर के दिन को हिमालय दिवस के रूप में मनाना शुरू किया था। हिमालय दिवस ने भी पिछले कुछ सालों में इतनी तरक्की कर ली है कि अब उसे विश्व हिमालय दिवस कहा जाने लगा है।
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