@विनोद भगत
काशीपुर। देवभूमि पर्वतीय महासभा एक समय में पर्वतीय समुदाय की आवाज़ और एकजुटता का सशक्त मंच मानी जाती थी। यह संगठन न केवल समाज के सांस्कृतिक व सामाजिक हितों के लिए सक्रिय रहा, बल्कि पर्वतीय जनों की समस्याओं और अधिकारों की रक्षा के लिए भी प्रभावशाली भूमिका निभाता रहा है। मगर बीते दो वर्षों से महासभा चुनाव को लेकर जो गतिरोध बना हुआ है, उसने न केवल संगठन की साख को प्रभावित किया है, बल्कि पूरे पर्वतीय समाज को भी एक असमंजस की स्थिति में डाल दिया है।
महासभा के चुनाव पिछले दो वर्षों से आयोजित नहीं हो सके हैं। चुनावों की प्रक्रिया को लेकर बार-बार टालमटोल की स्थिति बनी रही है। विवाद का मूल कारण महासभा के पूर्व चुनाव और सदस्यों की संख्या को लेकर उत्पन्न हुआ मतभेद है। इस विवाद के चलते स्थानीय प्रशासन को चुनावी प्रक्रिया अपने हाथ में लेनी पड़ी, और उसने महासभा से प्रमाणिक सदस्यों की सूची प्रस्तुत करने की मांग की।
लेकिन यहां भी स्थिति जटिल हो गई। बताया जा रहा है कि महासभा के ही कुछ सदस्यों की वजह से यह सूची तैयार नहीं हो पा रही है। जानबूझकर यह प्रक्रिया बाधित की जा रही है जिससे चुनाव आगे न बढ़ सकें।
अब 20 जुलाई, रविवार को महासभा के कुछ सक्रिय लोगों ने एक बैठक बुलाई है, जिसमें चुनावी गतिरोध, संगठन की दिशा और भविष्य को लेकर चर्चा की जानी है। यह बैठक पर्वतीय समाज के हित में मानी जा रही है, लेकिन इसी बैठक को लेकर विरोध के स्वर भी उठने लगे हैं।
कुछ लोगों ने बैठक की वैधता और उसकी मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं। उनका कहना है कि जब तक प्रशासनिक रूप से कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं आता, तब तक इस तरह की बैठकों से केवल भ्रम की स्थिति ही उत्पन्न होगी।
समस्या की जड़ महासभा के भीतर फैली वह फूट है, जो निजी स्वार्थों और गुटबाज़ी की उपज मानी जा रही है। महासभा के ही कुछ पूर्व पदाधिकारी या प्रभावशाली सदस्य इस संगठन को अपनी निजी महत्वाकांक्षा का साधन बनाकर रख देना चाहते हैं। यह स्थिति न केवल चुनावी प्रक्रिया में बाधक बन रही है, बल्कि आम पर्वतीय जन की आस्था को भी गहरा आघात पहुँचा रही है। रही बात कार्यक्रमों की तो पर्वतीय समाज के तमाम कार्यक्रम बगैर महासभा के हो रहे हैं।
इस सबके बीच पर्वतीय समाज के अधिकांश लोग चाहते हैं कि महासभा पुनः उसी निष्पक्षता और समर्पण के साथ कार्य करे, जैसा कि वह पहले करती रही है। वे चाहते हैं कि संगठन में नई ऊर्जा, युवा नेतृत्व और पारदर्शिता के साथ काम हो।
लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसा हो पाएगा? क्या गुटबाजी और सत्ता की रस्साकशी से ऊपर उठकर महासभा अपना खोया हुआ गौरव और अस्तित्व वापस पा सकेगी? क्या समाज की एकजुटता इन बाधाओं को पार कर पाएगी?
वर्तमान स्थिति में महासभा एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। यदि यह संगठन अपनी साख और उद्देश्य को पुनर्जीवित करना चाहता है, तो उसे ईमानदारी, पारदर्शिता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के मार्ग पर चलना ही होगा। इसके लिए प्रशासन, समाज और महासभा के अंदरूनी लोगों — सभी को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।
वरना यह संगठन केवल एक नाम बनकर रह जाएगा — जो कभी पर्वतीय समाज की शान हुआ करता था।
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