@विनोद भगत
स्थानीय निकाय चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें समाज में समानता और भागीदारी की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानी जाती हैं। परंतु यह विडंबना ही है कि जिस उद्देश्य से इन सीटों को आरक्षित किया गया, वह अक्सर छलावे में बदल जाता है। अनेक मामलों में ऐसा देखा गया है कि महिला पार्षदों के नाम पर उनके पति ही सत्ता का संचालन करते हैं। यह प्रवृत्ति “पार्षद पति” नामक एक असंवैधानिक और काल्पनिक पद की सृष्टि कर चुकी है, जो भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना के लिए एक गहरा प्रश्नचिन्ह है।
जब किसी वार्ड को महिला उम्मीदवारों के लिए आरक्षित किया जाता है, तो इसकी मूल भावना यह होती है कि महिलाओं को नेतृत्व के अवसर मिलें, वे निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में भागीदार बनें और स्थानीय प्रशासन में सक्रिय भूमिका निभाएं। परंतु वास्तविकता इससे भिन्न है। चुनाव जीतने के बाद पार्षद महिला शायद ही कभी कार्यालय में दिखती हैं, न ही वार्ड की समस्याओं के समाधान के लिए वे सामने आती हैं। इसके उलट उनके पति हर मीटिंग में मौजूद होते हैं, मंचों पर भाषण देते हैं, अधिकारियों से संवाद करते हैं, फील्ड में जाते हैं और खुद को निर्णयकर्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
यह दृश्य इतना आम हो गया है कि अब इसे लोग सामान्य मानने लगे हैं। “पार्षद पति” अब एक हास्यास्पद किंतु प्रचलित पद बन चुका है। स्थिति तब और अधिक विचलित करती है जब यही व्यक्ति महिला सशक्तिकरण के मंचों पर खड़े होकर भाषण देते हुए नजर आते हैं।
एक बड़ा प्रश्न यह भी है—क्या आपने कभी किसी पुरुष पार्षद की पत्नी को “पार्षद पत्नी” के रूप में मंचों पर देखा है? क्या उन्हें निर्णय प्रक्रिया में भाग लेते देखा है? शायद नहीं। क्योंकि पुरुष जब चुनकर आते हैं, तो वे स्वयं कार्य करते हैं। उनकी पत्नियाँ, भले ही सक्षम हों, पर्दे के पीछे ही रहती हैं। लेकिन जब महिला चुनकर आती है, तो वह स्वयं परदे के पीछे चली जाती है, और उसका पति पर्दे के आगे आ जाता है।
यह प्रवृत्ति सिर्फ लोकतंत्र के साथ धोखा नहीं है, यह उन महिलाओं का भी अपमान है जो वास्तव में नेतृत्व क्षमता रखती हैं। यह उन वास्तविक महिला नेताओं के लिए भी असुविधा की स्थिति उत्पन्न करता है जो पूरी निष्ठा और मेहनत से अपने दायित्वों का निर्वहन कर रही हैं। उनके संघर्ष और प्रयासों की चमक भी इन ‘छद्म प्रतिनिधियों’ के कारण धुंधली पड़ जाती है।
हालांकि, हर जगह यह स्थिति नहीं है। कुछ महिला पार्षद वाकई में उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। वे क्षेत्र में सक्रिय रहती हैं, लोगों की समस्याओं को सुनती हैं, योजनाओं के क्रियान्वयन में भाग लेती हैं और अपने कार्य से यह साबित करती हैं कि महिलाओं को यदि अवसर मिले तो वे पुरुषों से कम नहीं होतीं। लेकिन ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं, और जब तक यह संख्या बढ़ेगी नहीं, तब तक महिला सशक्तिकरण एक अधूरा सपना ही बना रहेगा।
इस प्रवृत्ति के लिए राजनीतिक दल भी जिम्मेदार हैं। चुनाव में टिकट बाँटते समय यह नहीं देखा जाता कि महिला उम्मीदवार कितनी सक्षम हैं, बल्कि यह देखा जाता है कि उनके पति कितना प्रभावशाली हैं। दलों के लिए महिला सिर्फ एक नाम होती है, असली सौदेबाजी पति से होती है। जब राजनीतिक पार्टियाँ ही इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देंगी, तो फिर महिला नेतृत्व की कल्पना कैसे साकार होगी?
समाज और तंत्र को अब इस प्रवृत्ति पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। यदि महिला सशक्तिकरण की बात की जाती है, तो उसका वास्तविक स्वरूप भी जमीन पर दिखना चाहिए। आरक्षण का उद्देश्य महिलाओं को नाम मात्र का चेहरा बनाना नहीं, बल्कि उन्हें नेतृत्व प्रदान करना है।
पार्षद का पद केवल एक महिला के नाम पर दर्ज होने से महिला सशक्तिकरण सिद्ध नहीं होता। सशक्तिकरण तब सिद्ध होगा जब महिला स्वयं निर्णय लें, स्वयं अपने दायित्व निभाएं और मंचों पर स्वयं दिखें। “पार्षद पति” के इस प्रहसन पर रोक लगाना न केवल समय की माँग है, बल्कि यह लोकतांत्रिक नैतिकता की पुकार भी है।
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