@विनोद भगत
आजकल की दुनिया में अगर आपके पास एक मोबाइल और थोड़ी बहुत आईडी टाइप चीज़ है, तो आप पत्रकार हैं। हां, कुछ पुराने खड़ूस टाइप पत्रकारों को यह बात पचती नहीं। वो कहते हैं – “हमने तो पत्रकारिता की पढ़ाई की है, अखबार में संपादक से डांट खाई है, प्रूफ देखा है, गालियां सुनी हैं… और ये लौंडा मोबाइल लेकर सीधे प्रेस कॉन्फ्रेंस में घुस आया!”
अरे भाई, जब दुनिया डिजिटल हो गई है तो पत्रकारिता क्यों पीछे रहे?
वैसे भी, अब पत्रकारिता कोई पेशा नहीं, शौक बन गया है। जिस तरह सुबह उठकर कोई योग करता है, कोई मॉर्निंग वॉक पर जाता है, उसी तरह कुछ लोग सूबह-सुबह माइक उठाकर अधिकारियों से पूछ लेते हैं – “आपने गड्ढे क्यों नहीं भरे?”
अब इसमें बुराई क्या है? कम से कम गड्ढे तो टीवी पर आ रहे हैं। पहले तो सड़क टूटती रहती थी और जनता चुपचाप उस पर भजिया तलती थी। अब लोग सवाल पूछते हैं, लाइव आते हैं, लाइक्स बटोरते हैं। पत्रकारिता अब चौथा स्तंभ नहीं, चौथा कैमरा एंगल बन चुकी है – फ्रंट कैमरा ऑन करो और रिपोर्टिंग चालू।
और जो लोग कहते हैं कि पत्रकार बढ़ गए हैं, उन्हें ये भी सोचना चाहिए कि नेता कितने बढ़ गए हैं। पहले गांव में एक प्रधान होता था, अब हर गली में दो नेता हैं – एक सत्तापक्ष का, दूसरा व्हाट्सएप ग्रुप का। और इन सबके पास एक अदद फोटो जरूर होता है – किसी बड़े नेता के साथ, मंच पर, मुस्कराते हुए। अब बताइए, जब मंच पर खड़े होकर कोई नेता बन सकता है तो फुटपाथ पर खड़े होकर कोई पत्रकार क्यों नहीं बन सकता?
सच कहें तो अब जनता के पास तीन ही ऑप्शन हैं – या तो नेता बने, या पत्रकार बने, या फेसबुक पर दोनों की आलोचना करे।
और हां, पढ़ाई-लिखाई की बात न ही करें तो बेहतर है। जो सबसे ऊंचे पदों पर बैठे हैं, उनके बारे में किसी ने ठीक ही कहा – “वो तो ऐसे बोलते हैं जैसे स्कूल उनके बगल से गुजर गया हो, लेकिन वो उसमें कभी घुसे न हों!” फिर भी आईएएस, पीसीएस अफसर उनकी बातों को नोट करते हैं और सर हिलाते हैं।
अब सवाल यह है कि जब नेता बिना डिग्री के देश चला सकते हैं, तो पत्रकार बिना डिप्लोमा के मोहल्ला क्यों नहीं चला सकता?
पत्रकारिता अब कैमरे की क्वालिटी से तय होती है, न कि कंटेंट से। जितनी अच्छी रील बनाओगे, उतना बड़ा रिपोर्टर कहलाओगे। और जो सवाल उठाएंगे कि “कहां से सीखा पत्रकारिता?” – उन्हें एक ही जवाब देना है – “जैसे आपने सीखा नेतृत्व।”
तो आइए, एक हाथ में मोबाइल, दूसरे में आईडी और कंधे पर थोड़ा कॉन्फिडेंस लेकर मैदान में उतरिए। क्योंकि अब ना मंत्री से अपॉइंटमेंट लेना मुश्किल है, ना पत्रकार बनना।
और आख़िर में बस इतना कहें —
नेता बनने के लिए मंच चाहिए, पत्रकार बनने के लिए माइक।
बाक़ी दोनों को बस भीड़ चाहिए — चाहे वो कैमरे के आगे हो या मंच के नीचे।
जय पत्रकारिता! जय सेल्फी-लोकतंत्र! 📸🗞️
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