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भोपाल गैस त्रासदी का एक्टिविस्ट जो हजारों के लिए लड़ा, मौत के समय उसकी मदद के लिए कोई नहीं आया

भोपाल। बुरे अनुभवों से भरे संसार में परोपकारिता की एक झलक भी ताजी हवा के झोंके जैसा लगती है, चाहे उसका अंत उतना अच्छा न भी हो। ऐसी ही एक कहानी है 62 साल के अब्दुल जब्बार की। जो कि 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के एक पीड़ित थे और बाद में इस त्रासदी के पीड़ितों के लिए न्याय के एक योद्धा बने।

हालांकि करीब 30 सालों तक भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए पूरी ताकत से लड़ने के बावजूद जब्बार खुद को सरकारी हॉस्पिटल के बेड पर अपने आखिरी वक्त का इंतजार करते हुए अकेला और ठुकराया हुआ पाया। जब्बार के लिए इससे भी ज्यादा परेशान करने वाली बात यह थी कि उन्हें उन लोगों ने अकेला छोड़ दिया, जिनके लिए उन्होंने पूरी मेहनत से लड़ाई लड़ी।

प्यार से लोग उन्हें ‘जब्बार भाई’ कहते थे। वे 27 साल के थे जब 1984 में 2-3 दिसंबर की दरमियानी रात जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट का रिसाव यूनियन कर्बाइड इंडिया लिमिटेड के पेस्टिसाइड प्लान्ट में हुआ। तब एक स्टूडेंट रहे जब्बार ने कई दिनों तक हाथ का ठेला खींचा ताकि वे खुद की पढ़ाई पूरी कर सकें और फिल्मों के पोस्टर छापे ताकि वे अपनी लिए जीविका का जुगाड़ कर सकें।

उस दुर्भाग्यपूर्ण रात, अपनी मां को पास के सुरक्षित इलाके गोविंदपुरा में ले जाने के बाद, जब्बार तुरंत अपने राजेंद्र नगर स्थित घर की ओर दौड़े, जो कि प्लांट के बिल्कुल नजदीक ही था ताकि वे पीड़ितों को हॉस्पिटल पहुंचा सकें।

जब्बार के भाई शमीम बताते हैं, ‘हमारे पास स्कूटर था और जब्बार भाई लगातार पीड़ितों को अपने दोपहिया वाहन पर तब तक हॉस्पिटल लेकर आते रहे, जब तक उसका पेट्रोल नहीं खत्म हो गया। इसके बाद हम पीड़ितों को पैदल ही ढोकर लाए।’

उन्होंने बताया, ‘उस समय हम एक समय पर 5 किलो आटा एक वक्त के खाने के लिए प्रयोग करते थे और इसके जुगाड़ के लिए बहुत कड़ी मेहनत करते थे। मेरी नादरा बस स्टैंड इलाके में एक छोटी सी खाने-पीने के सामान की दुकान थी लेकिन इसे अतिक्रमण हटाओ अभियान के दौरान बंद कर दिया गया था।’

जब्बार ने अपने माता-पिता और अपने बड़े भाई को 1984 की त्रासदी में खो दिया था। चूंकि इस त्रासदी ने जब्बार को भी अपना शिकार बनाया था, जिससे उनकी भी दोनों आंखों की आधी रोशनी चली गई थी। साथ ही उन्हें फेफड़ों की एक गंभीर बीमारी हो गई थी। लेकिन इसने उन्हें निराश करने के बजाए उन्हें न्याय के लिए लड़ने को प्रेरित ही किया और वे इन पीड़ितों की पेंशन, मुआवजे, पुनर्वास और चिकित्सकीय सुविधाओं के लिए लगातार लड़ते ही रहे।

शमीम और जब्बार का परिवार उनके दादा के घर पर पुराने शहर के राजेंद्र नगर इलाके (चंदबर) में रहता है। उनका परिवार जो वैसे तो पंजाब से आता है विभाजन के बाद लखनऊ चला आया था और बाद में उन्होंने अपने रहने के लिए भोपाल को ठिकाना बना लिया था, जहां उनके दादा जी एक कपड़ा मिल में काम किया करते थे।

हामिदा बी जो 1984 से उनकी मौत तक उनके साथ ही थीं, बताती हैं, ‘मेरे भाई लगातार भोपाल कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पीड़ितों के न्याय के लिए लड़ते रहे जहां (सुप्रीम कोर्ट में) आज भी भोपाल गैस पीड़ितों की मुआवजे की याचिकाएं लंबित हैं’ उन्होंने कहा, ‘जब वे भयानक बीमारी से लड़ रहे थे तो कोई उनकी मदद करने के लिए नहीं आया।’

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