@विनोद भगत
वह गर्मियों की दोपहर थी। शहर की सड़कें तप रही थीं, और अखबारों की सुर्खियों में एक तूफ़ान उठ चुका था। अगले ही दिन के पहले पन्ने पर एक खबर छपी थी— “माफिया से नेता बना सुरेश ठाकुर— अपहरण, रंगदारी और अत्याचार की पूरी कहानी।”
खबर किसी और ने नहीं, बल्कि शहर के निर्भीक पत्रकार आदित्य शर्मा ने लिखी थी, जो वर्षों से सच की लड़ाई लड़ रहा था।
उसने सबूतों के साथ सुरेश ठाकुर की काली करतूतों को उजागर कर दिया था। लेकिन आदित्य जानता था कि यह खबर छपवाना एक युद्ध की शुरुआत थी।
सुरेश ठाकुर कभी शराब और हथियार तस्करी का बड़ा चेहरा हुआ करता था। फिर उसने अपने काले पैसों से चुनाव लड़ा, और विधायक बन बैठा। उसकी सत्ता अब वर्दीधारियों तक फैली हुई थी। प्रशासन, पुलिस, अधिकारी — सब उसकी जेब में थे।
लेकिन आदित्य की खबर ने उसकी नींव हिला दी। पूरे राज्य में बवाल मच गया। सोशल मीडिया पर बहसें शुरू हो गईं। चैनलों ने खबर उठा ली। ठाकुर की छवि पर पहली बार सार्वजनिक हमला हुआ था।
तीसरे ही दिन आदित्य अचानक गायब हो गया। उसकी माँ दर-दर भटकती रही, लेकिन कहीं कोई सुराग नहीं मिला। पाँचवे दिन पुलिस ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की— “पत्रकार आदित्य शर्मा को अवैध हथियार रखने और एक व्यापारी से रंगदारी माँगने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।”
आदित्य की तस्वीर हथकड़ियों में टी.वी. पर चमक रही थी। लेकिन उसकी आँखों में भय नहीं, शांति और आत्मविश्वास था। मानो वह जानता हो कि यह सब कुछ उसकी रिपोर्ट की पुष्टि है।
थाने के अंधेरे सीलन भरे कमरे में आदित्य बैठा था। उसकी शर्ट फटी हुई थी, होंठ सूजे हुए, लेकिन चेहरे पर शिकन नहीं। तभी दरवाज़ा खुला। सुरेश ठाकुर अंदर आया। सफेद कुर्ता, गले में सोने की चेन और चाल में अभिमान।
“कैसे हो पत्रकार बाबू?” उसने तिरस्कार से पूछा। आदित्य चुप रहा।
ठाकुर पास आकर बोला, “एक ऑफर है तुम्हारे लिए। अगर कल के अखबार में इस रिपोर्ट का खंडन छाप दोगे, कह दोगे कि सब मनगढ़ंत था, तो मैं तुम्हें आज़ाद करवा दूँगा। वरना… अगला केस हत्या का भी बन सकता है।”
आदित्य ने कुछ क्षण उसे देखा। फिर होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान उभरी और उसने कहा”अगर, तुम मुझे झूठे मामले में अपने प्रभाव से फँसाकर सत्ता का दुरुपयोग कर के नहीं पकड़वाते, तो शायद मेरी रिपोर्ट झूठी होती। लेकिन तुमने वही सब किया जो मैंने उसमें लिखा था।
इसका मतलब है… मैं सही हूँ।
और जब मैं सही हूँ, तो खंडन कैसे छापूं?”और हाँ, इस लड़ाई में जीत मेरी हुई है। पत्रकारिता की हुई है। पत्रकारिता कभी नहीं हार सकती।
सुरेश चुप खड़ा था। उसकी आंखों की पुतलियाँ काँप रहीं थीं। पहली बार उसे अहसास हुआ कि ताकत सिर्फ डराने में नहीं, सहने में भी होती है।
यह बात मीडिया तक पहुँच गई। वरिष्ठ पत्रकारों ने विरोध किया। अदालत में जनहित याचिका दायर हुई। दो हफ्तों में सच्चाई सामने आई— हथियार फर्जी थे, व्यापारी नकली था, पुलिस अधिकारी रिश्वत में शामिल था।
आदित्य को रिहा कर दिया गया। और ठाकुर? उसे पद से बर्खास्त कर सीबीआई जांच का सामना करना पड़ा। उसके खिलाफ कई मामले दोबारा खुले।
रिहा होकर जब आदित्य अपने ऑफिस पहुँचा, तो उसके सहयोगी तालियाँ बजा रहे थे। वह मुस्कराया और बोला—
“सच को झूठा साबित करने के लिए सत्ता, पैसा, पुलिस, सब जुट जाते हैं।
लेकिन सच के पास सिर्फ एक चीज़ होती है—
विश्वास।
और वही अंत में जीतता है।”