@विनोद भगत
श्यामलाल कहे जा रहे थे। लेकिन मन ही मन में। बेटा सामने खड़ा अपने पिता के मनोभावों को पढ़ने की असफल कोशिश कर रहा था। श्यामलाल अपने खेत को देखकर सोच रहे थे “गाँव की ज़मीनें अब खेत कम और प्लॉट ज़्यादा बनती जा रही हैं। शहर की ऊँची इमारतों में रहने का सपना दिखाकर लोग उनके खेत खरीद रहे हैं, लेकिन क्या वो सुख… वास्तव में सुख है?”
वो सुबह कुछ अलग थी। गाँव के सबसे पुराने आम के पेड़ के नीचे बैठे श्यामलाल अपनी हथेली में थोड़ी सी मिट्टी लेकर सूँघ रहे थे। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे।
“बाबूजी, आपको ये सूखी मिट्टी क्यों इतनी प्यारी लगती है?” उनका बेटा विजय उनसे पूछ रहा था।
श्यामलाल ने मिट्टी हथेली से नीचे गिरा दी, जैसे कोई स्वप्न टपककर धरती पर गिर गया हो।
“क्योंकि बेटा, इसी मिट्टी से मैंने रोटी उगाई थी… और तुम्हारा बचपन भी।”
श्यामलाल का बेटा विजय, शहर में एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था। जब बिल्डरों ने गाँव में जमीन के लिए मुँहमाँगी कीमत देना शुरू की, तो विजय ने तुरंत फैसला कर लिया – “अब गाँव में क्या रखा है बाबूजी? बेचिए ज़मीन, शहर में एक फ्लैट ले लेते हैं। सुख-सुविधा सब वहीं है।”
श्यामलाल चुप रहे। उनकी आँखों में खेतों की हरियाली, बैलों की जोड़ी, और कोल्हू के पास बैठी अपनी मर चुकी पत्नी की मुस्कान घूम गई। पर पुत्र के आग्रह, बहू के तानों और समय के थपेड़ों के आगे उन्होंने हार मान ली। तीन बीघा खेत बिका, और मुंबई के उपनगर में एक टू-बीएचके फ्लैट खरीदा गया।
फ्लैट सुंदर था। एसी, एलिवेटर, कैमरा, सिक्योरिटी गार्ड – सब कुछ आधुनिक। लेकिन श्यामलाल का मन घुटता था।
वहाँ धूप सीधी नहीं आती थी। हवा का कोई झोंका मिट्टी की गंध नहीं लाता था। पड़ोसी ‘नमस्ते’ नहीं करते थे। और पोता नमन अब मोबाइल से बाहर नहीं निकलता था।
एक दिन उन्होंने खिड़की से नीचे देखा – वहाँ एक पार्क में बच्चे प्लास्टिक के आम के पत्तों से खेल रहे थे।श्यामलाल का दिल बैठ गया।
“अब बच्चों ने असली आम का पेड़ देखा भी नहीं होगा…” उन्होंने मन ही मन कहा।
एक रात गांव से फोन आया।
“काका, आपके खेत में तो अब बोर्ड लग गया है – ‘रॉयल ग्रीन रेसिडेंसी – बुकिंग ओपन’… और वो आम का पेड़ भी गिरा दिया…”
श्यामलाल की आँखों से आँसू बह निकले। पर मिट्टी से बिछड़ने की पीड़ा को मन में दबाये रहे।
कुछ दिन बाद गाँव से फिर फोन आया –
“बाबूजी, आपके खेत की मेड़ अब नहीं रही… प्लॉट बनने लगे हैं। वो आम का पेड़ गिरा दिया गया।”
श्यामलाल के हाथ काँपने लगे। उन्होंने एक पुरानी तस्वीर निकाली – जिसमें विजय, उसकी पत्नी, और नमन खेत में खड़े थे। पीछे वो आम का पेड़ झूम रहा था।
अगली सुबह विजय ऑफिस चला गया। बहू बाजार। पोता नमन टैबलेट में गेम खेल रहा था।
शाम को उन्होंने बेटे से पूछा –
“बेटा, इस फ्लैट में एक कोना मिलेगा क्या, जहाँ थोड़ा सा मिट्टी का ढेर बना सकूँ?”
विजय चौंक गया –
“मिट्टी का ढेर? किसलिए बाबूजी?”
श्यामलाल ने मुस्कुराते हुए कहा –
“बस, कभी-कभी सूँघ लूँगा… कि मैं जिंदा हूँ अभी।”
विजय कुछ कह नहीं पाया। लेकिन बहू ने पीछे से कहा –
“बाबूजी, यहाँ तो धूल का भी जुरमाना लगता है सोसाइटी में।”
श्यामलाल स्वच्छंद प्रकृति के बीच हरियाली से भरपूर पेड़ों की ताजी हवा में जीने के आदी थे। यहाँ शहर की भीड़ में अपनों को खोजते हुये श्यामलाल घुटन भरे माहौल में जी रहे थे। काश उनकी वही जिंदगी फिर वापस आ पाती। भौतिक सुख सुविधा से उनका मन व्यथित था। एक छोटी सी झोपड़ी उन्होंने गांव में रख छोड़ी थी। उन्हें बार बार वह गांव की झोपड़ी वापस बुला रही थी। मानो कह रही हो श्यामलाल आ जा लौट कर आ जा। रात में वह जैसे सोते से जाग जाते और फिर करवट बदलते रहते।
एक दिन श्यामलाल ने दृढ़ निश्चय कर लिया वह लौट जायेंगे अपने गांव। और उस दिन श्यामलाल चुपचाप गाँव चले गए – अकेले। वहाँ सब बदल चुका था। अब खेत तो उनके खेत नहीं रहे, न वहाँ आम का पेड़ रहा। पर उन्होंने वही मिट्टी उठाई और माथे से लगाई।
“तू नहीं बदली रे मिट्टी… सब कुछ बिक गया, पर तू नहीं बिकी।” अपनी छोटी सी झोपड़ी में प्रवेश करते ही श्यामलाल को लगा जैसे वह स्वर्ग में पहुंच गए हैं। आंखों में आंसू बह रहे थे। हाथ जोड़कर झोपड़ी को नमन किया मानो कह रहे हैं कि मुझे माफ कर देना। मैं भटक गया था मैं वापस आ गया।
गाँव का एक शख्स उनके साथ का आया – “अरे श्यामू भैया! लौट आए?”
श्यामलाल ने मुस्कुरा कर कहा –
“नहीं भैया… मैं कहीं गया ही कब था? मेरी साँसें तो यहीं रुकी थीं… शहर तो बस शरीर गया था।”
पूरे गाँव में श्यामलाल के आने की खबर फैल गई। उनसे मिलने लोग आने लगे। श्यामलाल जितने दिन शहर में रहे बेटे बहू के होने के बावजूद एक अकेलापन उन्हें सालता था। लेकिन उन्हें गांव वापस आये कुछ ही समय बीता था कि वह भीतर से खुद को मजबूत समझने लगे। ये गांव की पाजिटिव एनर्जी का प्रभाव था।
वहाँ मुंबई में बेटे ने उन्हें एक मोबाइल फोन दिलवा दिया था। अचानक उसकी घंटी बजी। उन्होंने देखा कि बेटे का फोन था। उन्होंने बात की। उधर से बेटा परेशान आवाज में “पापा कहाँ हो आप? यहाँ हम सब परेशान हैं।
श्यामलाल जी ने इतना ही कहा मैं गाँव वापस आ गया हूँ और फोन काट दिया। और गांव के अपने मित्रों से बातचीत में मशगूल हो गये। उस दिन श्यामलाल को लगा कि वह अपनी जिंदगी जी रहे हैं। सुख और सूकून भरी जिंदगी।
लेकिन दूसरे ही दिन बेटा विजय पत्नी और बच्चे सहित आ गया। उसने दूर से देखा उसके पिता श्यामलाल हंसते हुए अपने गांव के साथियों के साथ बतिया रहे हैं। उसने मुंबई में अपने पिता को देखा था जितने दिन वह वहाँ रहे उतने दिन में कभी भी उसने पिता को इतना खुश नहीं देखा था।
विजय किसी अपराध बोध से ग्रसित महसूस कर रहा था। जिस पिता ने उसे सुख देने के लिए न जाने कितने दुख झेले होंगे? उसके चेहरे पर मुस्कान रहे इसके लिए पिता ने अपनी परेशानियों को भुला दिया होगा। उसी पिता को वह अनजाने में ही दुख दे रहा था। हालांकि पिता को अपने साथ मुंबई ले जाकर वह उन्हें सुख देना चाहता था। पर वह गलत था।
उसने तय कर लिया था कि वह अपनी गलती सुधारेगा। वह पिता के पास पहुंचा और बोला, पापा, आप यहीं रहेंगे। अब आप को शहर आने की जरूरत नहीं है। यहाँ सभी व्यवस्था मैं कर दूँगा।
पिता के चेहरे पर एक ऐसी सुख की मुस्कान थी कि जिसका बखान शब्द शायद ही कर पायें। श्यामलाल अपनी मिट्टी की गोद में वापस आ गये थे।