@विनोद भगत
काशीपुर । दीपक बाली शहर के नये महापौर। अपने अल्प राजनीतिक जीवन में इस ओहदे पर पहुंचने वाले दीपक बाली मूल रूप से राजनेता नहीं हैं। दरअसल इस स्वभाव वाला राजनेता हो ही नहीं सकता। महापौर यानी शहर का प्रथम नागरिक लेकिन व्यवहार में वह कहीं से भी खुद को प्रथम नागरिक की छवि से अलग करते हुए नजर आने लगे हैं।
आमतौर पर कोई भी राजनेता इस पद पर पहुंच कर आम आदमी की पहुंच से दूर हो जाता है पर दीपक बाली के मामले में यह मिथक टूटता दिखाई दे रहा है। ये महापौर खुद आम आदमी के नजदीक जाता हुआ दिखाई दे रहा है। महापौर बनने के बाद की खुशी का जश्न मनाने में मशगूल होने के बजाय वह उस काम में जुट गया है जिसका कि उसने संकल्प लिया था। संकल्प कहने को मात्र एक शब्द है। पर इस शब्द के मायने को हर कोई नहीं समझ पाता।
अपने अभिनंदन समारोह में भी महापौर दीपक बाली के भीतर का आम आदमी बोलने लगता है। एक महापौर नहीं बोलता। वह आम आदमी के भोगे हुये यथार्थ की बात करता है। अभिनंदन समारोह में जो फूल मालाओं से लदा महापौर है वह कहीं से भी अभिमानी दीपक बाली नहीं लगता। वह महज सड़क नाली खड़ंजे के लिए महापौर नहीं बना है। अपने संबोधन में इस बात को भूले बगैर अपनी उन प्रतिबद्धताओं को भी सामने रखते हैं जिनका उन्होंने चुनावी लड़ाई के दौरान जिक्र नहीं किया। इसी वृहद सोच को प्रदर्शित कर दीपक बाली एक उम्मीद जगाने वाले राजनेता के रूप में सामने उभर कर आये हैं। मुझे यह कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं कि काशीपुर शहर के विकास की सूक्ष्म दृष्टि रखने वाले एन डी तिवारी के बाद एक और राजनेता मिला है। उसके पास संभावनाओं से ज्यादा यथार्थ के धरातल पर उतारने वाली योजनाओं का पुलिंदा है।
मैं अगर व्यक्तिगत अनुभव की बात बेबाकी से कहूँ तो ये कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी और न ही यह कोई स्क्रिप्टेड बात है, जैसा कि आजकल चलन हो गया है, दीपक बाली किसी राजनीतिक दल के सदस्य बाद में हैं पहले वह शहर के सदस्य हैं। शहर का विकास उनकी प्राथमिकताओं में है। महापौर बनने के बाद भी उनके सरल स्वभाव में कोई परिवर्तन नजर नहीं आया। मित्रों से बात करने का वही पहले सा अल्हड़ अंदाज लेकिन जब वह संबोधन करने उठ खड़े होते हैं तो उनके संबोधन में एक परिपक्व राजनेता की छवि दिखाई देती है। एक खास बात यह है कि इस सबके बावजूद वह अपने परिवार विशेषकर पत्नी उर्वशी बाली के सहयोग और योगदान को भी अपनीअब तक की सफलता का श्रेय देते हैं। दरअसल इंसान का नेता बनना तो संभव है लेकिन नेता में इंसानियत बिरले ही देखने को मिलती है। पर दीपक बाली ने नेता के इंसान न बन पाने की कहावत को उल्टा कर दिया है। वो नेता तो बन गये हैं पर इंसानियत को उन्होंने अभी तक अपने से दूर नहीं होने दिया।
अभी शुरूआत है राजनेता दीपक बाली की और शुरूआत में सार्थकता है। आगे भी यही सार्थकता कायम रहनी चाहिए।