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उत्तराखंड में हो रहे हादसों पर मुआवजा, कमियों पर पर्दा डालने से नहीं रुकेंगे भयानक हादसे, पत्रकार वेद भदोला की त्वरित टिप्पणी

वेद भदोला, उत्तराखंड के सामाजिक सरोकारों पर मुखर पत्रकार

– वेद भदोला

उत्तराखंड में सड़कों को चौड़ा करने के विरोध के कारण मैं अक्सर तथाकथित विकास समर्थकों के निशाने पर रहता हूं। साल 2018 में नैनीडांडा के धुमाकोट में हुई भीषण बस दुर्घटना के समय भी मैंने पर्वतीय रूटों पर सुरक्षा के मानकों को लेकर सवाल उठाए थे। धुमाकोट बस दुर्घटना के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश दिये थे। अब मरचुला दुर्घटना की मजिस्ट्रेटी जांच कुमाऊं आयुक्त को सौंपी गई है।लेकिन इस जांच से पहले यह स्पष्ट होना चाहिए कि धुमाकोट बस दुर्घटना की मजिस्ट्रेटी जांच पर क्या कार्रवाई हुई, उससे क्या सबक लिए गए!

अमेरिका-ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में जहां मजबूत पहाड़ हैं, सड़कों के पुराने स्वरूप को ज्यों का त्यों रखा है। जबकि उत्तराखंड जैसे राज्य जहां भुरभुरी मिट्टी वाले पहाड़ हैं को रेल और सड़क यातायात के नाम पर खोद दिया गया है। मेरा मानना है कि पहाड़ी सड़कों के अंधाधुंध चौड़ीकरण के बजाय किनारों पर इस्पात या सीमेंट की सुरक्षात्मक दीवार (Parapet wall) जैसे सुरक्षा के उपाय किए जाने चाहिए।

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में चल रही सवारी गाड़ियों की फिटनेस को लेकर भी समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे आरोप लगते रहते हैं कि गाड़ी की फिटनेस खत्म हो जाने के बावजूद आरटीओ घूस लेकर एकाध साल की फिटनेस बढ़ा देते हैं। वाहन की फिटनेस एक ऐसा मुद्दा है जिस पर कभी भी कॉम्प्रोमाइज नहीं किया जाना चाहिए।

बसों में क्षमता से अधिक सवारियां बैठाना भी दुर्घटना का कारण बनता है। ओवरलोडेड वाहनों के पट्टे-कमानियों के टूटने के कारण भी वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। अक्सर देखा गया है कि चेकपोस्ट पर तैनात कर्मचारी भी ओवरलोडिंग को नजरअंदाज कर देते हैं। अगर वाहनों की ओवरलोडिंग पर मुस्तैदी दिखाई जाए तो दुर्घटनाओं पर लगाम लगाई जा सकती है।

दरअसल, पर्वतीय रूटों पर पर्याप्त सवारी वाहन उपलब्ध न हो पाना ओवरलोडिंग का कारण बनता है। अगर तीस सीटर बस में साठ लोग बैठेंगे वो भी सामान के साथ तो दुर्घटना तो होनी ही है। सरकारों का ध्यान मैदानी इलाकों में परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त करने पर रहता है। जबकि जरूरत इस बात की है कि पहाड़ी रूटों पर पर्याप्त सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था की जाए।

इन दिनों पहाड़ों पर सड़कों का जाल बिछाने की होड लगी हुई है। हालात ये हैं कि कभी सड़क से महरूम रहे गांव में अब दो-दो सड़कें पहुंच गई हैं। इसके बावजूद पहाड़ी सड़कों के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। गड्ढा मुक्त सड़कों का अभियान मैदानी इलाकों में ही धूल फांक रहा है, जबकि पहाड़ की सड़कें गड्ढों से भरी हुई हैं।

मरचुला बस दुर्घटना के बाद एक बार फिर सवाल उठ खड़े हुए हैं कि क्या राज्य के नागरिक दोयम दर्जे की हैसियत रखते हैं या उनकी अहमियत सिर्फ वोट देने तक ही है।

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