@सुरेश नौटियाल
मध्य हिमालय अर्थात उत्तराखंड भू-भाग में धारों-नौलों के उपयोग और संरक्षण में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संवेदनशीलता इत्यादि का पूरा ध्यान रखा जाता रहा है. ये धारे-नौले सदैव ही सामूहिकता, सामंजस्यता, सद्भावना और परस्पर सम्मान के वाहक रहे हैं. और साथ ही, ग्राम-समाज की जीवन-रेखा ! और हां, अधिकतर मामलों में ये धारे, पंदेरे, मगरे और नौले प्राकृतिक ही रहे हैं. अर्थात, जहां प्राकृतिक रूप से पानी था, वहीं इनका निर्माण किया गया. ताल भी सदैव प्राकृतिक रहे. हां, खालें अवश्य मानव-निर्मित भी होती रही हैं.
कुल मिलाकर लोग जल संचय और उसके संरक्षण और संवर्द्धन का काम करते थे. यदि जल की मात्रा अर्थात उसका प्रवाह नियमित और ठीक-ठाक मात्रा में होता था तो ग्राम-समाज उसे धारे-पंदेरे या मगरे का रूप देता था. और यदि पानी की मात्रा कम होती थी तो सूर्य की किरणों से बचाकर उसे नौले का रूप दिया जाता था. कहीं-कहीं तो नौले के भीतर सीढियां भी बनाई जाती थी. धारों-मगरों की मुखाकृतियों को खूब सजाया जाता था. उन्हें इस प्रकार से बनाया जाता था की जल का प्रवाह उन मुखाकृतियों से बाहर निकले. और ये मुखाकृतियां गणेश, नागदेवता, बाघ, हाथी, गाय, इत्यादि किसी भी देव या जीव की हो सकती थीं. इनके आस-पास छोटा सा मंदिर भी बना दिया जाता था. संक्षेप में, यह स्थल पवित्र स्थल होता था और मंदिर के बराबर ही इसका स्थान भी होता था. आस-पास खूब सफाई भी रखी जाती थी. पानी होने के फलस्वरूप आस- पास वनस्पतियां और वृक्ष तो स्वतः ही उगे होते थे.
धारों और मगरों की तरह नौलों के बाहर भी देवताओं की आकृतियां उकेरी जाती रही हैं. गोपेश्वर (चमोली जनपद) के वैतरणी में दसवीं सदी से पहले बने ऐसे मुख प्राप्त हुए हैं. और जहां तक धारों-नौलों के इतिहास की बात है, कुमाऊं मंडल में गंगोलीहाट के पास जाह्नवी नौला उत्तराखंड का सबसे प्राचीन नौला मना जाता है. समझा जाता है कि ईसा पूर्व 1272 में इस नौले का निर्माण किया गया था. तब संभवतः पानी की कमी नहीं रही होगी लेकिन किसी न किसी सामाजिक, सांस्कृतिक या धार्मिक कारण से यह उपक्रम किया गया होगा. धारे, नौले और मगरे वास्तव में संस्कृति के प्रतीक थे. इन्हें जल-संस्कृति का वाहक बनाकर जनचेतना के लिए उपयोग में लाया गया होगा. सामूहिक कार्यों का शुभारंभ या तो धारों-नौलों से होता था या देवस्थानों से. धारे, पंदेरे, मगरे और नौले गांव की बहू-बेटियों के मिलनस्थल भी हुआ करते थे. पूरे दिन काम से थकी ये महिलाएं धारे-पंदेरे और नौले के पास बैठ आपस में बातें कर अपनी थकान ही नहीं उतारती थीं, बल्कि अगले दिन के सामूहिक कार्यों की योजना भी बनाती थीं. संक्षेप में, जन्म-विवाह से लेकर अंतिम संस्कार जैसी अनेक धार्मिक क्रियाओं के संबंध में ये जल-प्रणालियां महत्वपूर्ण थीं. हां, अंतिम संस्कार के लिए जो जल-प्रणाली जाती थीं, वे गांव से कुछ दूर और भिन्न होती थीं.
उपयोग में लाई धारों, मगरों, पंदेरों और नौलों को सूर्य की सीधी किरणों से भी बचाया जाता था. इसमें यह विज्ञान था कि सूर्य की सीधी किरणें पानी को न लगने देने से पानी का वाष्पीकरण कम होता है और जल की शीतलता भी बनी रहती है. आज तो ये दोनों ही काम नहीं हो रहे क्योंकि नल-जल संस्कृति ने पारंपरिक जल-पद्ध्वतियों को समाप्त करने का काम कर दिया है. उत्तराखंड में तो विश्व बैंक की स्वजल योजना ने जल-संस्कृति का नाश करने में बड़ी भूमिका निभाई है. विकास की इस तथाकथित नयी सोच ने बहुत कुछ बदल दिया है. जहां धारे, पंदेरे, मगरे और नौले हुआ करते थे, वहां विश्व बैंक की इस योजना ने अपने नल लगा दिए और प्रकृति के कर्म को अपना कर्म दिखा दिया. आज ऐसे स्थानों पर जल निगम या जल संस्थान के नल उग आये हैं. ये न तो देखने में सुंदर लगते हैं और न ही स्थानीय परिवेश के अनुकूल दिखाई देते हैं. पर विवशता यह कि इनके बिना कोई पालन नहीं किया जा सकता? क्या सड़कें खोदते समय मलबे को सड़क पर ही बिछाकर नदियों को गाद और पत्थरों- चट्टानों से नहीं बचाया जा सकता?
जलवायु परिवर्तन के कारण ही धरती का तापमान बढ़ रहा है और हिमालय के हिमनद तेजी से पिघल रहे हैं. अनियमित, अनियंत्रित और कम वर्षा के लिए भी यही कारण जिम्मेदार है. वैसे तो जलवायु परिवर्तन के बहुत सारे आयाम हैं पर यहां पानी पर ही बात कर रहे हैं और वह भी हिमालय के पानी पर, उस हिमालय के बारे में जो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाद सबसे अधिक हिम अपने पास आज भी रखे हुए है. जलवायु परिवर्तन से हिमालय क्षेत्र में वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन हुआ है और जो हिमनद बचे हैं, उनके समाप्त होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा. अर्थात, वर्षा कम होगी तो हिम कम बनेगा और जितना बनेगा भी उतना टिकेगा भी नहीं तापमान बढ़ने के कारण.
जलवायु परिवर्तन के कारण भारत और तिब्बत के हिमालय क्षेत्र के अलावा गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसी सदानीरा कही जाने वाली नदियों के बेसिनों में रहने वाली करोड़ों की आबादी प्रभावित हो रही है. संकट इतना बढ़ गया है कि कोई नहीं जानता कि ये नदियां कब तक सदानीरा रहेंगी. जिन 16 हजार से अधिक हिमालयी हिमनदों पर ये नदियां निर्भर हैं, वे स्वयं अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका आकर छोटा हो रहा है और उनमें जो हिम है उसकी सघनता में भारी कमी आ रही है.
आईपीसीसी की 2007 की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि मानव गतिविधियों के कारण बढ़े तापमान के कारण भविष्य में इन नदियों में जलवायु परिवर्तन के कारण पानी का बहाव काफी कम हो जाएगा और उनका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है. भारत विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक जे. श्रीनिवासन तो पहले ही कह चुके हैं कि बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत के अधिकतम हिस्सों के सतही वायु तापमान में आधा डिग्री की वृद्धि हुयी, लेकिन हिमालय क्षेत्र में यह वृद्धि एक डिग्री सेंटीग्रेड की रही. इसी वजह से हिमनदों के पिघलने की गति तेज हुयी. हिमालयी कृषि पर तापमान बढ़ने का बुरा असर आज कोई भी देख सकता है. हिमालयी राज्यों में कृषि लगभग समाप्त होने का कारण केवल वन्य जीवों का हस्तक्षेप नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन भी प्रमुख कारण है.
हजारों हिमनदों और सैकड़ों नदियों का स्रोत है हिमालय. एशिया की अनेक महत्वपूर्ण नदियां हिमालय से निकलती हैं. पोलर यानी ध्रुवीय क्षेत्र से बाहर 72 किमी. लंबा और 2 किमी. चौड़ा सबसे बड़ा सायचिन हिमनद भी हिमालय क्षेत्र में ही विद्यमान है. बल्तोरो, बायाफो, नूत्रा, हिस्पार, बंदरपूंछ, डोकरियानी, खतलिंग, दूनागिरि, तिपराबमक जैसे हिमनद सब हिमालय क्षेत्र में ही हैं. ये सब किसी न किसी नदी का स्रोत हैं.
वर्ष 2000 में विश्व बैंक और जल संसाधन मंत्रालय भारत सरकार की एक रिपोर्ट “इंटर-सेक्टोरल वाटर अलोकेशन, प्लैनिंग एंड मैनेजमेंट” के अनुसार 2050 तक केवल ब्रह्मपुत्र, बराक और तादरी से लेकर कन्याकुमारी तक पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों में ही ठीकठाक पानी रह जाएगा. इस रिपोर्ट में फुटनोट के तौर पर यह बात भी कही गयी है कि 2050 तक अधिकतर हिमनद लुप्त ही हो जाएंगे. इस हिसाब से हिमनदों के लुप्त होने में 35 साल ही बचे हैं. राजेन्द्र पचौरी के अनुसार तो ये हिमनद 2035 तक भी गायब हो सकते हैं. और, इस हिसाब से तो बीस साल ही बचे हैं. ऐसा होगा तो गंगा बेसिन में रहने वाले करोड़ों लोगों का क्या होगा? चीन के अनुसंधानकर्ताओं ने तिब्बत में जो शोध किया है, उसके अनुसार तो हिमनदों के तेजी से पिघलने से उनकी स्थिति ही खराब नहीं हो रही है बल्कि बाढ़ की स्थिति भी पैदा हो गयी है.
साथ ही, उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्यों में संविधान के अनुच्छेद-371 और राजस्व अधिनियम के सेक्शन-18 की व्यवस्थाओं अथवा उनके जैसी व्यवस्थाओं के साथ अनिवार्य चकबंदी के माध्यम से खेती को बचाया जाए. हिमालय फल संवर्धन योजना के माध्यम से लोगों को वृक्ष खेती की ओर प्रोत्साहित करने की योजना बने. प्रत्येक विधायक अपने क्षेत्र में अपने कार्यकाल में कम से कम एक लाख नये वृक्षों के रोपण और उनके रखरखाव की जिम्मेदारी ले.
भोजन पकाने के लिये पर्याप्त मात्रा में छोटे सिलेंडरों के माध्यम से पर्वतीय ग्रामों में वर्ष 2000 में विश्व बैंक और जल संसाधन मंत्रालय भारत सरकार की एक रिपोर्ट “इंटर-सेक्टोरल वाटर अलोकेशन, प्लैनिंग एंड मैनेजमेंट” के अनुसार 2050 तक केवल ब्रह्मपुत्र, बराक और तादरी से लेकर कन्याकुमारी तक पश्चिम की ओर बहने वाली नदियों में ही ठीकठाक पानी रह जाएगा. इस रिपोर्ट में फुटनोट के तौर पर यह बात भी कही गयी है कि 2050 तक अधिकतर हिमनद लुप्त ही हो जाएंगे. इस हिसाब से हिमनदों के लुप्त होने में 35 साल ही बचे हैं. राजेन्द्र पचौरी के अनुसार तो ये हिमनद 2035 तक भी गायब हो सकते हैं. और, इस हिसाब से तो बीस साल ही बचे हैं. ऐसा होगा तो गंगा बेसिन में रहने वाले करोड़ों लोगों का क्या होगा? चीन के अनुसंधानकर्ताओं ने तिब्बत में जो शोध किया है, उसके अनुसार तो हिमनदों के तेजी से पिघलने से उनकी स्थिति ही खराब नहीं हो रही है बल्कि बाढ़ की स्थिति भी पैदा हो गयी है.
संक्षेप में हिमालय के सन्दर्भ में यही है कि पारिस्थितिक प्रबंधन व्यवस्था समग्र हिमालय नीति का हिस्सा हो और “हिमालय संरक्षण एवं संवर्द्धन मंत्रालय” इन पर क्रियान्वयन करे. पारिस्थितिक-क्षेत्र संरक्षण की नीति इस प्रकार बने कि प्राकृतिक विरासत पर स्थानीय जनता के पारंपरिक अधिकार यथावत बने रहें. चीड़ जैसे एकल प्रजाति के वनों को समाप्त कर उनके स्थान पर चौड़ी पत्ती वाले मिश्रित वन लगाए जाएं. और, जिन दूसरे देशों में हिमालय है, वहां भी ऐसे मंत्रालय बनाए के लिए भारत सरकार वहां की सरकारों से बात करे.
साथ ही, उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्यों में संविधान के अनुच्छेद-371 और राजस्व अधिनियम के सेक्शन-18 की व्यवस्थाओं अथवा उनके जैसी व्यवस्थाओं के साथ अनिवार्य चकबंदी के माध्यम से खेती को बचाया जाए. हिमालय फल संवर्धन योजना के माध्यम से लोगों को वृक्ष खेती की ओर प्रोत्साहित करने की योजना बने. प्रत्येक विधायक अपने क्षेत्र में अपने कार्यकाल में कम से कम एक लाख नये वृक्षों के रोपण और उनके रखरखाव की जिम्मेदारी ले. भोजन पकाने के लिये पर्याप्त मात्रा में छोटे सिलेंडरों के माध्यम से पर्वतीय ग्रामों में रसोईगैस उपलब्ध कराई जाय ताकि ईंधन के लिए वनों पर अनावश्यक बोझ न बढे. यात्रियों पर अनिवार्य रूप से पर्यावरण शुल्क लगाया जाए.
पच्चीस सौ किलोमीटर लंबे और करीब तीन सौ किलोमीटर चौड़ाई वाले हिमालय क्षेत्र के स्वास्थ्य की चिंता में पिछले कुछ वर्षों से देशभर और खासकर उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में 9 सितंबर को “हिमालय दिवस” मनाया जाता है. साल में एक दिन प्रायश्चितभाव से हिमालय दिवस मनाने से कुछ नहीं होगा. हिमालय के संरक्षण के लिए तो हर दिन हिमालय दिवस मनाना होगा, तब जाकर हिमालय का भला होगा और यह काम सर्वप्रथम हिमालय के पर्वतों, हिमनदों, नदियों, जलागम क्षेत्रों और वनों को संरक्षण के नैसर्गिक अधिकारों से सुसज्जित करने से आरंभ होगा। हिमालय दिवस मनाने की सार्थकता तो तब होगी जब हिमालय के स्थानिक पर्यावरण-पारिस्थितिकी, वातावरण-जलवायु और भूगोल के हिसाब से अनुकूल और मानव संवेदी दीर्घकालिक नीतियां बनें. पारिस्थितिक-पर्यावरण प्रबंधन अल्पावधि में सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है. इसके लिए दीर्घकालिक रणनीति चाहिए. ऐसी नीतियां हों जिनमें इसके पर्वतों, हिमनदों, नदियों, वनों, जलागम क्षेत्रों, लोगों, वन्य जंतुओं और वनस्पतियों के संरक्षण और संवर्द्धन की बातें हों.
जब दुनिया के कुछ देशों में पर्वतों, नदियों और वनों के संरक्षण के नैसर्गिक अधिकार हो सकते हैं तो हिमालय पर्वत को ये अधिकार क्यों नहीं मिल सकते? उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाहर सबसे अधिक हिम का संरक्षण करने वाले हिमालय के साथ ऐसा व्यवहार क्यों? क्या हम नहीं चाहते कि इसके हजारों-हजारों हिमनद और सैकड़ों नदियां करोड़ों-करोड़ों लोगों के जीवन को सुनिश्चित करें? लगभग पांच सहस्त्राब्दि पूर्व ऋषि अथर्वन द्वारा रचित चौथे और अंतिम वेद ‘अथर्वेद के बारहवें अध्याय में “पृथिवी” सूक्त में भी तो यही भावना है. इस वेद के एक श्लोक (यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवु, यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्सा नो भूमिः पूर्वेपेये दधातु) में धरा का आह्वान किया गया है कि सागर, नदियों-जलस्रोतों, कृषि उपज और जीव- वनस्पति वैविध्य से परिपूर्ण ओ धरा हमें भोजन उदार होकर देना। और इस पर आज टिप्पणी है कि यह निर्भर करता है धरा के स्वास्थ्य पर। धरा पर स्वच्छ जल और वनस्पतियों से लेकर अनुकूल वायु की उपलब्धता रहेगी तभी यह श्लोक चरितार्थ होगा.
जीव-जगत के लिए जल के महत्व के बारे में सर्वज्ञात है कि यह प्राणवायु ऑक्सिजन के पश्चात सबसे महत्वपूर्ण तत्व है. ऑक्सिजन के बिना तो जीवन की कल्पना कुछ पल से अधिक नहीं की जा सकती, किंतु जल के बिना भी जीवन अधिक समय तक नहीं रह सकता है. वायु दिखती नहीं है, केवल उसकी अनुभूति होती है इसलिए उसका एथीरिअल अर्थात वायवीय महत्व है, यद्यपि सनातनी परंपरा में वायु भी देव है. दूसरी ओर, देव के रूप में होने के साथ-साथ मानव के लिए जल पूरे जीवन-दर्शन के रूप में विकसित हुआ है. भारत में सदानीरा गंगा और अन्य नदियों को देवी के रूप में ही माना और पूजा जाता है. उत्तराखंड के धारे-नौले भी इसी जीवन- दर्शन का अंग हैं.
मध्य हिमालय भौगोलिक विषमता और आर्थिक दुर्बलता की उपस्थिति में भी सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना के साथ-साथ राजनीतिक जागरूकता के मामले में भी संपन्न रहा है. अपने भीतर अनेक संस्कृतियों और समाजों को समेटे गढ़वाल और कुमाऊं का यह भू-भाग ऐसा है जहां वर्ष भर कौथिग-मेले और त्यौहार आयोजित होते रहते हैं कुछ धार्मिक तो कुछ सांस्कृतिक, और जल अनेक मेलों-त्यौहारों के साथ किसी-न- किसी रूप में जुड़ा है. शिव से जुड़े त्यौहारों से जल का जुड़ाव विशेषरूप से माना जाता है. आज भी विवाह के बाद गांव आने वाली नयी बहू के लिए धारे-पंदेरे या नौले पर अगली सुबह जाकर पूजा करना और वहां से पानी लाना संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है. अंततः इतना ही कहना है कि यदि हिमालय को सही मायने में बचा लिया तो उसके धारे-नौले भी लौटेंगे और लौटेगा इस संस्कृति पर आधारित पूरा जीवन और जीवन-दर्शन !