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बांग्लादेश : चिरागों के बदले मुल्क जल रहा है, वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल का सटीक विश्लेषण

राकेश अचल,
वरिष्ठ पत्रकार जाने माने आलोचक

बांग्लादेश में तख्ता प्लाट न अप्रत्याशित है और न इसे टाला जा सकता था ,क्योंकि जिस तरह से प्रधानमंत्री शेख हसीना देश को चला रहीं थीं उसका हासिल यही होना था। शेख हसीना अपने मुल्क में तख्ता पलट होते ही पद से इस्तीफा देकर भारत में शरणार्थी बन गयीं हैं ,लेकिन बांग्लादेश की आग की जलन आस-पड़ौस में भी महसूस की जा रही है। 53 साल के बांग्लादेश को ये दिन क्यों देखना पड़ रहे हैं इसका विश्लेषण अब बहुत जरूरी हो गया है।

आज से 53 साल पहले 16 अगस्त 1971 को बांग्लादेश जिन परिस्थितियों में बना था तब से अब तक बहुत कुछ बदला है। बंगलादेश में ठीक वैसी ही राजनीति चली आ रही है जिसका विरोध अक्सर भारत में विभिन्न राजनीतिक दल करते आ रहे हैं। आपको याद होगा कि भारत ने 6 दिसंबर, 1971 को बांग्लादेश को एक स्वतंत्र देश के तौर पर मान्यता दी थी. हालांकि तब वो पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा था.कोई 10 दिन बाद बांग्लादेश को पूर्ण आजादी तब मिली थी जब पाकिस्तान की सेना ने भारत की सेना के समाने हथियार डाल दिए थे।

बांग्लादेश स्वाभाविक रूप से भारत का मित्र है और पिछले 53 साल में तमाम उठपटक के बावजूद भारत और बांग्लादेश में अपवादों को छोड़कर कभी अनबन नहीं हुई । जानकार कहते हैं कि दक्षिण एशिया के देशों में बांग्लादेश के सबसे क़रीबी संबंध भारत के साथ ही हैं. सिर्फ़ व्यापार के स्तर पर बात करें तो दोनों देशों के बीच 10 अरब डॉलर का कारोबार होता है, जो पूरे दक्षिण एशिया में सबसे ज़्यादा है.पाकिस्तान बनने के 24 साल बाद ही बांग्लादेश का उदय हुआ। क्यों हुआ ये सब जानते हैं। इसकी तफ्सील में जाना शायद जरूरी नहीं है ।

बांग्लादेश में तख्तापलट की वजह बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में कोटा समाप्त करने की मांग को लेकर पिछले महीने से छात्रों का आंदोलन है. लेकिन बाद में यह एक व्यापक सरकार विरोधी आंदोलन में बदल गया और आग ऐसी भड़की की प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़कर भागना पड़ा । वे यदि पलायन न करतीं तो मुमकिन है कि उन्हें भी हिंसा का शिकार होना पड़ता। दुर्भाग्य की बात ये है कि जिस बांग्लादेश की आजादी में भारत की प्रमुख भूमिका रही उस बांग्लादेश में पाकिस्तान की राजनीति का रंग ज्यादा चढ़ा बजाय भारत की राजनीति के।

दुनिया जानती है की 170 मिलियन की जनसँख्या के साथ, जनसँख्या की दृष्टि से बांग्लादेश दुनिया का आठवा सबसे बड़ा देश है, और एशिया में जनसँख्या के हिसाब से पाँचवा सबसे बड़ा देश और सर्वाधिक मुस्लिम जनसँख्या की दृष्टि से तीसरा (भारत, पाकिस्तान के बाद ) सबसे बड़ा देश है। अधिकारिक बंगाली भाषा दुनिया में सातवी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है, जिसका उपयोग बांग्लादेश के साथ-साथ पडोसी राष्ट्र भारत के पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और आसाम में भी किया जाता है।बांग्लादेश के साथ भारत का एक पड़ौसी का ही नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक और भाषाई रिश्ता भी ह। इसे आप रोटी-बेटी का रिश्ता भी कह सकते हैं।

शेख हसीना भारत के नेहरू परिवार की राजनीति से मेल खाती राजनीति की उपज हैं। लेकिन उन्होंने न कभी चाय बेचीं और न कभी परिवारवाद की राजनीती का विरोध किया । उन्हें अपने पिता शेख मुजीब की वजह से राजनीति में जगह जरूर मिली लेकिन आसानी से नहीं। उन्होंने अपना बहुत कुछ खोया भी। शेख हसीना के पिता, माँ और तीन भाई 1975 के तख्तापलट में मारे गए थे। उस हादसे के बाद भी उन्हें राजनीतिक सफलता आसानी से नहीं मिली। उन्होंने 80 के दशक में बांग्लादेश में जनरल इरशाद के सैनिक शासन के खिलाफ जो मुहिम छेड़ी, उसके दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। जनरल इरशाद के बाद भी उन्हें जनरल की पत्नी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की खालिदा जिया से कड़ी प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ कड़वी और लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी।

शेख हसीना ने 1996 में चुनाव जीता और कई वर्षो तक देश का शासन चलाया। उसके बाद उन्हें विपक्ष में भी बैठना पड़ा। उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा। उन पर एक बार प्राणघातक हमला भी हुआ जिसमें वे बाल बाल बच गईं ,एक बार फिर बांग्लादेश राजनीति के गहरे भँवर में फंस गया और देश की बागडोर सेना-समर्थित सरकार ने संभाल ली। इस सरकार ने शेख हसीना पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और उनका ज्यादातर वक्त हिरासत में ही गुज़रा। इस बीच वे अपने इलाज के लिए अमरीका भी गईं और ये अंदाज़ा लगाया जा रहा था कि वे जेल से बचने के लिए शायद वापस लौट कर ही ना आएँ। लेकिन वे वापस लौटीं और दो साल के सैनिक शासन समेत सात साल बाद 2008 में हुए संसदीय चुनावों में विजय प्राप्त की। शेख हसीना अब शायद ही बांग्लादेश की सियासत में वापस लौट सकें।

बांग्लादेश में तख्तापलट की असली वजह विपक्ष का सफाया और देश की खराब आर्थिक स्थिति के साथ ही कारण 1979 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वालों के लिए नये देश में तीस फ़ीसदी का आरक्षण नौकरियों में देने का फैसला रहा । नव जवान यह माँग कर रहे थे कि जिन लोगों ने मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लिया था, अब वे साठ पैंसठ के हो रहे होंगे। ऐसे में उन्हें नौकरियों की दरार नहीं रही। नाहक उनके परिजनों को आरक्षण मुहैया कराया जा रहा है। नव जवानों की इस माँग पर हसीना में 2018 में यह आरक्षण निरस्त भी कर दिया था। पर उस आरक्षण के लाभार्थी कोर्ट गये। अदालत ने लाभार्थियों के पक्ष में फ़ैसला सुना दिया। और यहीं से हिंसा भड़कना शुरू हुई। आज बांग्लादेश में वहां के गाँधी शेख मुजीबुर्रहमान ही नफरत के शिकार हो रहे है। उनकी प्रतिमाएं तोड़ी जा रहीं हैं।

बांग्लादेश में लोकतंत्र की बहाली कब होगी ,कोई नहीं जानता । वहां चुनाव होंगे ,कब होंगे ये भी अभी तय नहीं है। लेकिन बांग्लादेश के अग्निदग्ध होने से भारत की परेशानी बढ़ गयी है । भारत में भी मौजूदा सत्ता वे सब गलतियां कर रही है जो शेख हसीना ने बांग्लादेश में की । भारत में भी सरकार सभी महत्वपूर्ण जगहों पर संघियों को बैठा चुकी है । यहां तक की नौकरशाही में भी सरकार ने संघी भर दिए है। विपक्ष के सफाये के लिए मौजूदा सरकार वो सब कुछ कर रही है जिसकी वजह से बांग्लादेश जला। अल्पसंख्यकों के प्रति मौजूदा सरकार का रवैया भी ठीक वैसा ही है जैसा की शेख हसीना का बांग्लादेश में था। भारत में शेख हसीना की मौजूदगी कितने दिन की है ये हमें और आपको नहीं पता । वे भविष्य में भारत में रहेंगीं या किसी और देश में जायेंगीं ये भी तय नहीं है। लेकिन वे जिस आग से निकलकर भागीं हैं उसकी लपटें हम भी महसूस कर रहे हैं। ईश्वर बांग्लादेश में शांति भाली के साथ ही भारत के हुक्मरानों कोभी बांग्लादेश की त्रासदी से सबक लेने की शक्ति दे। कोई माने या न माने हमारा देश भी इस समय अदावत की राजनीति के चंगुल में हैं।
@ राकेश अचल
achalrakesh1959@gmail.com

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