इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक ओर दुनिया भर में अर्थव्यवस्था को पैमाना बना कर अलग-अलग देशों में विकास की चमकती तस्वीरें पेश की जा रही हैं और दूसरी ओर बड़ी तादाद में बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी बाल पोषण संबंधी रिपोर्ट में यह आंकड़ा सामने आया है कि विश्वभर में पांच साल से कम उम्र के लगभग सत्तर करोड़ बच्चों में से एक तिहाई बच्चे या तो कुपोषित हैं या फिर मोटापे से पीड़ित हैं। नतीजतन, इन बच्चों पर पूरे जीन कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त रहने का खतरा बना रहेगा।
‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्र्न’ रिपोर्ट की ताजा तस्वीर विकास के दावों की हकीकत बताने के लिए काफी है। सवाल है कि अर्थव्यवस्था के चमकते आंकड़ों के बरक्स अगर दुनिया के एक तिहाई बच्चे किसी न किसी बीमारी की चपेट में अपनी जिंदगी काटेंगे तो उस चमक को किस तरह देखा जाएगा! विकास के प्रचारित पैमानों में अगर बच्चों के पोषण पर केंद्रित कार्यक्रम दुनिया के देशों की प्राथमिकता में शुमार नहीं हुए तो सेहत की कसौटी पर आने वाली पीढ़ियों के व्यक्तित्व का अंदाजा भर लगाया जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हम स्वस्थ खानपान की लड़ाई हार रहे हैं। असल में एक नई समस्या यह खड़ी हो रही है कि कहीं जरूरत से ज्यादा और असंतुलित खानपान की वजह से बच्चों का वजन अत्यधिक है तो किसी परिवार में बच्चों को पेट भर खाना भी नहीं मिल पा रहा है। दोनों ही स्थितियों को कुपोषण के ही रूप में देखा गया है। एक में बच्चे मोटापे से पीड़ित हो रहे हैं तो दूसरे में बच्चों का कद अपनी आयु के मुताबिक काफी छोटा है और वे अत्यंत दुबलेपन की समस्या से जूझ रहे हैं।
जहां तक भारत का सवाल है, यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक यहां हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। जबकि देश में हर साल एक लाख करोड़ रुपए का अनाज बर्बाद हो जाता है, यानी चालीस फीसद भोजन वार्षिक उत्पादन में बेकार हो जाता है। जाहिर है, पोषण का यह असंतुलन खानपान की स्थितियों से जुड़ा है, लेकिन दरअसल यह असंतुलित विकास नीतियों का नतीजा है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पूरी दुनिया को अगले दशक के आखिर तक भुखमरी से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया गया है और संयुक्त राष्ट्र के इस लक्ष्य से भारत भी जुड़ा हुआ है।