@शब्द दूत डेस्क (10 मई 2024)
सम्मानित कहे जाने वाले पत्रकार वीआईपी के आगमन पर फोटो खींचने के लिए जैसे ही आगे बढ़े कि तभी किसी अधिकारी या सुरक्षा कर्मी ने उसे पीछे की ओर धकिया दिया। पीछे जाइये पीछे जाइए कहकर अधिकारी ने पत्रकार को ऐसी नजरों से देखा मानो वह वीआईपी को नुकसान पहुंचाने की गरज से आया है। हालांकि पत्रकार अपना काम कर रहा था। और उसे कवरेज के लिए बाकायदा आमंत्रित भी किया गया। और अगर आमंत्रित नहीं भी किया गया था तो भी वह अपने मीडिया के दायित्व को निभा रहा था।
ऊपर की पंक्तियों में जो भी लिखा है अगर आप मीडिया कर्मी हैं तो आपको भी इस स्थिति से कभी न कभी गुजरना पड़ा होगा। इसके बावजूद आप अपना कर्तव्य निभाते हैं। आपको यह एक सामान्य घटना लगती होगी। पर क्या वास्तव में ये घटना सामान्य है इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
मीडिया की अपनी एक ताकत होती थी लेकिन विचार करें कि क्या मीडिया की अपनी ताकत बरकरार है? लोकतंत्र में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और जब मीडिया को उपरोक्त परिस्थिति से गुजरना पड़ता है तो पता चलता है कि मीडिया की क्या ताकत है।
अब सवाल यह उठता है कि मीडिया के लोग इतने असहाय आखिर क्यों हैं? ध्यान दें कि जब किसी राजनीतिक दल चाहें वह सत्तारूढ़ दल हो या विपक्ष अपनी प्रेस कांफ्रेंस में मीडिया को आमंत्रित करता है और ससम्मान अपनी बात उनके समक्ष प्रस्तुत करता है। जो पुलिस अधिकारी मीडिया को वीआईपी कार्यक्रमों के दौरान धकियाता है वही अधिकारी किसी अपराध के खुलासे के बाद अपनी कामयाबी का बखान कर यह आशा करता है कि मीडिया उसे प्रकाशित कर लोगों के सामने उसकी छवि उज्जवल बनायें। कामयाबी लोगों के सामने आनी चाहिए ये जरूरी है लेकिन उसी मीडिया पर अधिकारियों को उस वक्त भरोसा टूट जाता है जब कोई वीआईपी का कार्यक्रम होता है।
अधिकारियों के इतने रूखे व्यवहार के बावजूद मीडिया किसी तरह वीआईपी कार्यक्रमों की कवरेज अपने रिस्क पर करते हुए उसे प्रकाशित करता है। पर उस कवरेज के लिए उसे किस जद्दोजहद से गुजरना पड़ा यह वही जानता है।
लेकिन एक सवाल तो फिर भी मीडिया शांत क्यों है?