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‘यहां सियासत के लिए कोई जगह नहीं’, जानिए इस शिक्षण संस्थान को क्यों जारी करना पड़ता है ये बयान

@शब्द दूत ब्यूरो (05 अप्रैल, 2024)

देवबंद स्थित इस्लामिक इदारा दारुल उलूम यूं तो मजहबी तालीम और विश्व में देवबंदी विचारधारा के लिए जाना जाता है, लेकिन सियासत और सियासी लोगों का भी यहां से पुराना नाता रहा है। ऐसा एक या दो बार नहीं, बल्कि कई बार हुआ जब राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े दिग्गजों ने दारुल उलूम पहुंचकर अपनी सियासी जमीन तलाशने की कोशिश की। पर, एक घटनाक्रम ने ऐसा माहौल बना दिया कि दारुल उलूम को हर बार चुनाव से पहले बयान जारी करना पड़ता है कि यहां पर राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है।

दरअसल, हुआ कुछ ऐसा था कि साल 2009 में एक पार्टी के बड़े नेता यहां पर पहुंचे थे। उस समय उन्होंने तत्कालीन कुलपति मौलाना मरगूबुर्रहमान का हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख लिया था। इसकी फोटो भी खिंचवा ली थी। इसके बाद उस फोटो का इस्तेमाल चुनाव प्रचार में इस तरीके से किया गया जैसे दारुल उलूम ने उन्हें अपना समर्थन दे दिया हो। यह मामला काफी सुर्खियों में रहा था।

दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 30 मई 1866 को हुई थी। इसकी स्थापना हाजी सैयद मोहम्मद आबिद हुसैन, फजलुर्रहमान उस्मानी और मौलाना क़ासिम नानौतवी ने की थी। इसके पहले उस्ताद (शिक्षक) महमूद देवबंदी और पहले छात्र महमूद हसन देवबंदी थे। इसमें देश के कोने-कोने से करीब साढ़े चार हजार छात्र इस्लामी तालीम हासिल करते हैं। हर मुसलमान दारुल उलूम के साथ भावनात्मक तौर से भी जुड़ा है। दारुल उलूम कोई फतवा जारी करता है तो उसे हर मुस्लिम मानता है। नेता भी इसी सोच के साथ दारुल उलूम के दरवाजे पहुंचते हैं कि उन्हें एक समुदाय का समर्थन मिल सके।

साल 2009 में मुलायम सिंह यादव दारुल उलूम देवबंद आए थे। इसके पहले 2006 में राहुल गांधी भी दारुल उलूम में पहुंचे थे। साल 2011 में अखिलेश यादव भी यहां आए। इसके अलावा मौलाना अबुल कलाम आजाद, फारुख अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत भी यहां का दौरा कर चुके हैं।

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