@शब्द दूत ब्यूरो (19 मार्च, 2024)
ब्रिटेन का नाम आते ही एक संपन्न देश की तस्वीर हमारे जेहन में उभरती है और ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस तो दुनिया की सबसे बेहतरीन स्वास्थ्य सेवाओं में गिनी जाती थी. लेकिन ये कुछ बरस पहले की बात है. आज इस सर्विस की हालत ऐसी हो चुकी है, इसकी कल्पना आप एक दृश्य से कर सकते हैं. मान लीजिए कि आप बीमार पड़ गए हैं. बुखार दर्द ऐसा है कि खत्म ही नहीं हो रहा. फिर आप हॉस्पिटल जाते हैं और हालत देख डॉक्टर आपको भर्ती होने को कहता है. आप इमरजेंसी रूम में एडमिट हो जाते हैं. इलाज शुरू हो जाता है. कई रातें अस्पताल में बितानी पड़ती है. कुछ हफ्ते बाद आप फिर से बिल्कुल ठीक हो जाते हैं.
यूं तो हर किसी की यही चाहत होती है कि अस्पताल में जाने की नौबत ही नहीं आए, और अगर आए तो सही समय पर इलाज हो जाए. इसके मुताबिक हम अगर ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस को देखें तो इसे इलाज की फिलहाल सख्त जरूरत है. हालत ये है कि यहां के अस्पतालों से डरावनी कहानियाँ आए दिन सुर्ख़ियों में रहती हैं. मरीजों के इलाज के लिए न तो बिस्तर हैं और न ही पर्याप्त डॉक्टर. अस्पताल के कर्मचारियों के पास भीड़-भाड़ वाले गलियारों में मरीजों का इलाज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा. एम्बुलेंस की देरी तो आम बात है. अगर चोट आई हो तो इलाज के लिए 12 घंटे का इंतजार करना पड़ता है, हार्ट अटैक आया तो भी 8 घंटे का इंतजार तय है. कई लोगों ने तो एंबुलेंस के इंतजार में घर में ही दम तोड़ दिया.
भारत ने बढ़ाया मदद का हाथ
ऐसे हालत में ब्रिटेन ने भारत से मदद मांगी है. भारत इसके लिए तैयार भी हो गया है. ब्रिटेन की गुजारिश पर भारत 2000 डॉक्टर्स को एनएचएस में भेजने को राजी हो गया है. लेकिन इसे लेकर दो तरह की राय सामने आ रही है. कुछ लोग इस पहल को एनएचएस में डॉक्टरों की कमी के समाधान के रूप में देखते हैं, तो कुछ लोगों ने भारत की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली से इन डॉक्टर के पलायन पर चिंता व्यक्त की है. इन लोगों की नजर में ये सॉफ्ट ब्रेन ड्रेन की तरह है. यानी जो डॉक्टर फिलहाल मदद के लिए जा रहे हैं, वो संभव है वहीं स्थाई रूप से रह जाएं. इस लेख में जानेंगे की इस पहल के नफा नुकसान क्या होंगे और 1948 में स्थापना के बाद से ब्रिटेन के लिए गर्व का स्रोत NHS, जिसे कभी ‘एनवी ऑफ द वर्ल्ड’ कहा जाता था. यानी दुनिया के दूसरे देशों को इस हेल्थ सर्विस से ईष्या हुआ करती थी. इस वजह से दुनिया के कई देशों ने अपने हेल्थकेयर सिस्टम में सुधार करने के लिए एनएचएस को एक उदाहरण की तरह अपनाया तो आज अगर वही संस्था खस्ताहाल है, तो इस हालात का जिम्मेदार कौन है?
भारत का इससे नुकसान या फायदा होगा?
भारत से जो 2000 डॉक्टर यूके के नेशनल हेल्थ सर्विस में काम करने जाएंगे उनके पहले बैच को ब्रिटेन में पोस्ट ग्रेजुएट की 6 से 12 महीने की ट्रेनिंग के बाद अस्पतालों में तैनात किया जाएगा. गौर करने वाली बात है इन डॉक्टरों को ट्रेनिंग देने के बाद ब्रिटेन में नौकरी करने के लिए प्रोफेशनल्स एंड लिंग्विस्टिक असेसमेंट बोर्ड यानी पीएलएबी की परीक्षा भी पास नहीं करनी होगी. बताया जा रहा है कि इस प्रोजेक्ट को सीधे ब्रिटिश सरकार की ओर से फंड किया जाएगा. इससे भर्ती डॉक्टरों को स्थाई नौकरी तो नहीं मिलेगी लेकिन इससे मिला अनुभव डॉक्टरों के साथ देशों के लिए भी अहम होगा तो कुछ इसके प्रति भारत से डॉक्टरों के ब्रेन ड्रेन को लेकर चिंता भी जाहिर कर रहे हैं. तो क्या वाकई इससे भारत के हेल्थ सिस्टम में एक वैक्युम क्रिएट हो सकता है?
पब्लिक हेल्थ पॉलिसी एक्सपर्ट शुचिन इस तर्क को खारिज करते हुए कहते हैं कि, यह पहल भारत को प्रभावित नहीं करेगी क्योंकि 2000 एक बहुत छोटी संख्या है और भारत में सालाना 110,000 से अधिक ज्यादा लोग डॉक्टर बनते हैं. लेकिन इस प्लेसमेंट की वजह से डॉक्टर अपना स्किल सेट बढ़ा पाएंगे. जैसे मरीजों से डील करने से लेकर मैनजेरियल लेवल पर खुद को बेहतर करने का मौका मिलेगा वहीं इंडियन डॉक्टर्स भीड़ भाड़ में, प्रेशर हैंडल करने में माहिर होते हैं तो इससे NHS को भी काफी अपनी क्राइसिस से निपटने में मदद मिलेगी.”
ब्रेन ड्रेन होने की भी आशंका
यूके के ही नेशनल हेल्थ सर्विस में काम करने वाले डॉक्टर अविरल वत्स का कहना है कि, ”2000 की संख्या बहुत बड़ी तो नहीं है लेकिन उतनी छोटा भी नहीं है कि इसे नजरअंदाज किया जा सके. इसकी काफी संभावनाएं हैं कि कुछ साल बाद डॉक्टर यहां से वापस न जाए. जिसमें एक वजह तो यह हो सकती है कि उन्हें यहां अपना भविष्य ज्यादा बेहतर दिखाई दे या तो कभी कभार वापस जाने में कई तरह की दिक्कतें हो सकती हैं.”
हालांकि डॉक्टर रवि बगड़े जो पिछले 19 साल से एनएचएस में काम कर रहे हैं वो इस पहल को लिविंग ब्रिज का नाम देते हैं यानी अनुभव कहीं से भी मिले, उसका इस्तेमाल आप चाहे ब्रिटेन की आबादी के लिए करें या अपने खुद के देशवासियों के लिए फायदा हेल्थ केयर सिस्टम का ही होता है. रवि बगड़े इंटरनेशनल रिक्रूटमेंट में काम कर चुके हैं वो बताते हैं कि, ”इसका मकसद तीन चीजें है, Learn, Earn and Return. यानी आप काम सीखें, पैसा कमाए ओर अगर आपको लगे कि आपने सही तरीके से तालीम हासिल कर ली है तो देश की सेवा में लगाए.”
यूके के NHS की हालात डांवाडोल
एनएचएस की स्थापना 5 जुलाई 1948 को हुई थी. यह दुनिया में पहली बार था कि फीस या बीमा के भुगतान के बजाय नागरिकता के आधार पर पूरी तरह से मुफ्त स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराई गई थी. इसने अस्पतालों, डॉक्टरों, नर्सों को एक सेवा के तहत एक साथ ला दिया था. लेकिन इसके निर्माण के बाद से 75 वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है. पिछले कई सालों से सरकार पर NHS की अनदेखी के आरोप लगते हैं लेकिन कोविड के दौरान तो कई कमियां उजागर हो गईं.
कोविड से बहुत पहले से ही अभाव के माहौल में संस्था काम कर रही थीं और महामारी के तूफान का सामना करने के लिए लिहाजा बिल्कुल भी तैयार नहीं थी. दिसंबर 2022 तक हालात ऐसे हो गए थे कि इंग्लैंड में 54,000 लोगों को इमरजेंसी भर्ती करने के लिए 12 घंटे से ज्यादा इंतजार करना पड़ता था. एनएचएस इंग्लैंड के आंकड़ों के अनुसार, महामारी से पहले यह आंकड़ा लगभग शून्य था. स्ट्रोक या दिल का दौरा जैसी स्थिति में एम्बुलेंस के लिए औसत वेटिंग समय 90 मिनट से ज्यादा हो गया था. टार्गेट 18 मिनट का है. 30 दिसंबर को 5 साल के औसत से 1,474 (20%) अधिक मौतें हुईं.
30 सालों अंडरफंड रहा NHS
पर आखिर इस संस्था की ऐसी हालात हुई कैसे? इसका जवाब देते हुए डॉक्टर अविरल वत्स कहते हैं कि, ”25 से 30 सालों तक NHS को अंडरफंड किया गया है. पर्याप्त फंडिंग नहीं मिली है. पर कोविड के ही दौर में प्राइवेट प्लेयर्स पर खूब पैसा बहा गया. जिसके चलते जो इंफरास्ट्रक्चर पर काम होना था, डॉक्टरों की सैलरी बढ़नी थी, ट्रेनिंग पर खर्च होना था वो नहीं हो पाया”.
अविरल वत्स की यह बात कि प्राइवेट हेल्थ इंडस्ट्री फल फूल रहा है उसकी तस्दीक तो यह आंकड़े भी करते हैं. 2022 में ब्रिटेन के निजी अस्पतालों ने 8 लाख 20 हजार मरीजों का इलाज किया. जो अपने आप में एक नया रिकॉर्ड था. 2010 से 2021 के बीच प्राइवेट हॉस्पिटल का बिजनेस दुगना हो गया. चूंकि निजी क्षेत्र के अधिकांश डॉक्टर भी एनएचएस में काम करते हैं, इसलिए यह बढ़ोतरी एनएचएस के साथ-साथ ट्रेनिंग के लिए भी हानिकारक है.
कई रिपोर्ट्स के मुताबिक 2008 के बाद से जूनियर डॉक्टरों के वेतन में एक चौथाई से अधिक की कटौती की गई है. इसी साल 2024 के जनवरी महीने में जूनियर हजारों की संख्या में डॉक्टरों ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी और हड़ताल बुलाई थी. उनकी मांग थी की सरकार उन्हें बेहतर वेतन दे. लेकिन इस तरफ कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए. नतीजन तनाव और कम वेतन के कारण कई डॉक्टर विदेश में नौकरी करने के लिए मजबूर हो रहे हैं. बहुत सारे डॉक्टर ऑस्ट्रेलिया नौकरी करने के लिए चले गए हैं.
भारत की मदद से कुछ फायदा होगा?
इस पहल से एक सबसे बड़ी मदद तो यही होगी कि जॉब्स को लेकर जो गैप है वो पूरी हो जाएगी लिहाजा मरीजों का इलाज और देखभाल करने में काफी आसानी हो जाएगी. लेकिन अविरल वत्स कहते हैं कि यहां तो ठीक है कि भारत से 2000 डॉक्टरों को ट्रेन किया जाएगा, उन्हें काम सिखाया जाएगा. चुंकि यह डॉक्टर्स परमानेंट नहीं हैं तो एक वक्त के बाद ये लौट जाएंगे फिर आगे का ब्रिटेन सरकार के पास क्या प्लान है इस पर कोई क्लैरिचटी नहीं है. अगर सरकार के पास आगे का प्लान नहीं हो तो वही धाक के तीन पात वाली बात हो जाएगी. इसका कुछ फायदा नहीं होगा. असली काम पर्मानेंट स्टाफ की भर्ती करने का है, उनपर इनवेस्ट करने का है. जिस पर फिलहाल तो कोई काम नहीं हो पाया है.”
जब ऋषि सुनक ने प्रधानमंत्री के तौर पर पद संभाला था, तो उन्होंने वादा किया था कि NHS के लिए ज्यादा नर्सों और डॉक्टरों की भर्ती की जाएगी ताकि मरीजों को डॉक्टर से परामर्श लेने में लंबे समय तक इंतजार न करना पड़े. साथ ही 7000 बेड बढ़ाए जाएंगे. लेकिन उनके वादे के आगे अब तक कुछ नहीं हुआ. एनएचएस की जैसी स्थिति है उस हिसाब से वो ज्यादा दिन तक खड़ा रह पाएगा. सरकार के लिए पहला कदम इस बात को स्वीकार करना ही है.