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कौन सुनता है देश की आवाज ? वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल की कलम से

राकेश अचल,
वरिष्ठ पत्रकार जाने माने आलोचक

इस देश में देश की आवाज कौन सुनता है ? यदि आप इस सवाल को लेकर परेशान हैं तो खुश हो जाइये क्योंकि देश के सर्वोच्च न्यायालय के सुप्रीमो ने कहा कि -‘हम देश की आवाज सुनते हैं । सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दी वे चंद्रचूड़ ने ये बात कही है। उन्होंने ये बात एडवोकेट मैथ्यूज जे. नेदुमपारा के उस मेल के बाद कही है, जिसमें नेदुमपारा ने कहा था कि अदालत को संवैधानिक मामलों के बजाय सामान्य मामलों पर सुनवाई करनी चाहिए। मुख्य न्यायाधीश इस तर्क से सहमत नहीं है।

देश की न्यायपालिका अभी इतनी उदार है की प्रश्नों को सुनती है और जबाब भी देती है,अन्यथा आज देश उस दौर में पहुँच चुका है जहां सवाल करना राष्ट्रद्रोह माना जाने लगा है। हमारे भाग्यविधाता तो कोई सवाल सुनते ही नहीं,बल्कि जनता से ही प्रतिप्रश्न करते हैं। जी- 20 की बैठक के बाद देश से पूछा जा रहा है कि-‘ जनता का माथा ऊंचा हुआ के नहीं,सीना चौड़ा हुआ के नहीं ? गनीमत ये है कि हमारे देश की सबसे बड़ी अदालत ऐसे प्रतिप्रश्न नहीं करती उलटे प्रश्नों के जबाब देती है।

मुख्य न्यायाधीश को मेल करने वाले एडवोकेट मैथ्यूज ने कहा- बिल्कुल, सुप्रीम कोर्ट को आम आदमी के मामलों को प्राथमिकता देनी चाहिए। इस पर मुख्यन्यायाधीश ने कहा कि मैं बस आपको यह बताना चाहता था कि -‘आपको नहीं पता संविधान पीठ किन मामलों पर सुनवाई करती है। ये मामले इतने पेचीदा होते हैं कि अक्सर संविधान की व्याख्या करनी पड़ती है।’ माननीय न्यायाधीश ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को खत्म करने के खिलाफ दाखिल याचिकाओं का जिक्र किया।उन्होंने उत्तर देने के बाद प्रतिप्रश्न किया कि क्या इस मामले पर सुनवाई जरूरी नहीं है, मुझे नहीं लगता कि जो आप महसूस करते हैं सरकार या याचिकाकर्ता भी वैसा ही महसूस करते होंगे। संविधान बेंच के मामले कई बार संविधान की व्याख्या से भी आगे चले जाते हैंआपको बता दूँ की धारा ३७० से जुड़े मामलों की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश का चुके हैं की जिस अनुच्छेद 35 [अ ] ने जम्मू-कश्मीर की जनता को विशेष अधिकार दिए हैं उसी ने देश के बाकी लोगों से देश में कहीं भी बसने और रोजगार करने का अधिकार भी छीन लिया है।

एडवोकेट मैथ्यूज और मुख्य न्यायाधीश के बीच का संवाद महत्वपूर्ण भी है और रोचक भी क्योंकि ये प्रश्नाकुल समाज के जीवित होने का प्रमाण भी देता है। एडवोकेट मैथ्यूज ने कहा कि मैं लोगों के मौलिक अधिकारों से जुड़े मामलों की सुनवाई के खिलाफ नहीं हूं। मैं कोर्ट में दाखिल उन याचिकाओं की सुनवाई के खिलाफ हूं जो लोग जनता के हितों की आड़ में अपने स्वार्थ के लिए लगाते हैं। ऐसे मामलों पर सुनवाई करने से पहले कोर्ट को जनता की राय जरूर जान लेनी चाहिए।मुख्यन्यायाधीश ने एडवोकेट मैथ्यूज को अदालत की अवमानना की धमकी नहीं दी बल्कि बहुत ही विनम्रता से कहा कि -‘ यहां भी आप गलत हैं। आर्टिकल 370 से जुड़े मामले में भी घाटी के लोगों ने याचिकाएं दाखिल कीं। इसलिए हम राष्ट्र की आवाज ही सुन रहे हैं।’

आपको याद दिला दूँ कि जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाए जाने के खिलाफ दाखिल की गई 23 याचिकाओं पर सुनवाई पूरी हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय ने 16 दिनों तक मामले में दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद 5 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। पांच जजों की संवैधानिक बेंच ने मामले की सुनवाई की, जिसमें मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस संजीव खन्ना शामिल हैं।
जम्मो-कश्मीर से धारा 370 को हटे हुए 4 साल हो चुके हैं। इन चार सालों में न जम्मू-कश्मीर कि जनता को वादे के मुताबिक़ राज्य आ दर्जा वापस मिला और न वहां की मुख्य समस्याएं हल हुई । आज भी जम्मू-कश्मीर में वैसा वातावरण नहीं बन पाया है जैसा हमारे भाग्यविधाता चाहते था । आज भी जम्मू-कश्मीर की घाटियों में आतंक जिंदा है। हाल ही में सेना के चार वरिष्ठ अधिकारियों की हत्या इस बात का प्रमाण है।

मुझे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय का फैसला क्या आएगा ? मै तो इस बात से ही खुश हूँ कि सर्वोच्च न्यायालय कम से कम देश की आवाज को सुन तो रहा है ,अन्यथा ये देश अब कहने-सुनने में दिलचस्पी ही नहीं लेता। सरकार को अनसुनी करने की जैसे आदत पड़ चुकी है। जनता को आजिज आकर अदालतों के सामने गुहार लगना पड़ती है । अदालत में भी सुनवाई की एक लम्बी प्रक्रिया है । आपको जिला अदलात से लेकर कभी-कभी सर्वोच्च न्यायालय तक का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। आप ये भी तब कर सकते हैं जब आपके पास जेब में पैसा और वकालत के लिए मैथ्यू जैसे वकील उपलब्ध हों।

दरअसल आज मुझे बात करना चाहिए थी देश के लिए 45 हजार करोड़ के लिए फाइटर जेट और मिसाइलें खरीदने की लेकिन मैंने इस मुद्दे को छुआ ही नहीं। मै हथियारों के नाम से ही कांपता हूँ । मुझे लगता है कि जिस देश में 80 करोड़ जनता को दो जून भोजन के लिए सरकार के रहमोकरम पर जीवित रहना पड़ता हो उस देश में हथियार नहीं खरीदे जाने चाहिए। हथियार खरीद-खरीदकर पड़ौसी देश पाकिस्तान समेत दुनिया के तमाम देशों की क्या हालत हुई है सब जानते हैं। पहले दुश्मनी बढ़ाइए ,फिर देश की सुरक्षा केलिए जनता का पेट काटकर हथियार खरीदिये ,ये समझदारी नहीं हो सकती। बहरहाल बात देश की न्याय व्यवस्था के औदार्य की हो रही है।

देश में तमाम व्यवस्थाएं अविश्वास के दौर से गुजर रहीं है। कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जिसको लेकर जनता के मन में संदेह न हो या उसे लेकर सवाल न उठाये गए हो। न्याय पालिका भी इससे अछूती नहीं है । विधायिका और कार्यपालिका तो सवालों के घेरे में लम्बे आरसे से है । और खबरपालिका की तो इस दौर में सबसे ज्यादा फजीहत हुई है ,यहां तक कि अब उसके प्रतिनिधियों का बहिष्कार किया जाने लगा है।

क़ानून का एक छात्र होने के नाते मुझे संतोष है कि इस देश में अभी भी न्यायपालिका है जिसको लेकर देश की जनता में आस्था शेष है और सभी तक उसके बहिष्कार की नौबत नहीं आई है । यदि कहीं भगवान है तो वो कोशिश करे कि इसकी नौबत आये भी नहीं।आपको याद रखना चाहिए कि हम उस देश के लोग हैं जिस देश में सियासत की तरह अदलात में भी काम करने वाले लोगों पर परिवारवाद का आरोप चस्पा है। वकील का बेटा वकील और न्यायाधीश का बेटा न्यायाधीश बनता है। खुद देश के मौजूदा मुख्य न्यायाधीश इस दंश का अनुभव करते होंगे। इस मुद्दे को लेकर देश की सरकार और देश की न्यायपलिका में अक्सर तकरार होती आई है।
आजादी के अमृतकाल में देश की आवाज सुनने की कोई न कोई एजेंसी बनी रहे तभी देश में लोकतंत्र कायम रह सकता है अन्यथा अच्छे दिनों का ख्वाब आने वाले दिनों में भी ख्वाब ही रहने वाला है। इस समय देश में चारों तरफ अदावतें ही अदावतें दिखाई दे रहीं हैं। देश का लोकतांत्रिक चरित्र खतरे में है। देश सब कुछ ‘ एक ‘ करने केी धुन का शिकार है। ईश्वर देश कोई रक्षा करें ।
@ राकेश अचल
achalrakesh1959@gmail.com

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