अमेरिका के नील आर्मस्ट्रांग चंद्रमा पर अपने पैर रखने वाले पहले मनुष्य थे। 21 जुलाई 1969 को भारतीय समयानुसार सुबह आठ बजकर 26 मिनट पर अंतरिक्षयान ‘कोलंबिया’ से अलग होकर अवतरण यान ‘ईगल’ चंद्रमा पर उतरा था। उससे आर्मस्ट्रांग ही सबसे पहले बाहर निकले थे। यह नहीं कि अपने पैर चंद्रमा की मिट्टी पर रखने से पहले आर्मस्ट्रांग ने गांठ मारकर बंद की हुई प्लास्टिक की एक थैली चंद्रमा पर फेंकी थी।
यह थैली आर्मस्ट्रांग के सहयात्री बज़ एल्ड्रिन ने उन्हें तब पकड़ाई थी, जब वे ‘ईगल’ से नीचे उतरने की सीढ़ी पर खड़े थे। थैली में दोनों का मल-मूत्र और उड़ान के दौरान की खाने-पीने की सामग्रियों आदि का कचरा था। यह ऐसा पहला कचरा था, जिसे किसी मनुष्य ने अपने हाथ से चंद्रमा पर फेंका था. यह संभवतः आज भी वहां ज्यों का त्यों पड़ा हो सकता है।
ऐसा नहीं था कि आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन से, चंद्रमा पर पैर रखने से पहले, उसे गंदा करने के लिए कहा गया था। दरअसल, ये एक जरूरी काम था। चंद्रमा पर अपने विचरण के बाद ‘ईगल’ में ही बैठकर दोनों को ‘कोलंबिया’ के पास वापस जाना था। और चंद्रमा के आकाश में उसकी परिक्रमा कर रहे कोलंबिया’ को उन्हें पृथ्वी पर वापस ले आना था।
‘ईगल’ में जगह की बहुत तंगी थी और ईंधन भी बहुत नपा-तुला था। कचरा फेंककर उसका भार हल्का करने से थोड़ा ईंधन भी बच सकता था और कुछ जगह भी ख़ाली हो जाती। लिहाजा चंद्रमा को ग़ंदा करने के सिवाय और कोई रास्ता ही नहीं था।
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ का अनुमान है कि चंद्रमा पर भले ही कोई नहीं रहता, पर वहां 190 टन मनुष्य-निर्मित कचरा जहां-तहां बिखरा पड़ा है। नासा के अनुसार, अकेले उस क्षेत्र में, जहां अमेरिका के दोनों प्रथम चंद्रयात्री 21 जुलाई 1969 के दिन उतरे थे, 50 से अधिक चीज़ें बिखरी पड़ी हैं। अतिरिक्त लेंसों के साथ एक टीवी कैमरा, कई पाइप और ढक्कन, एक सुरक्षा कमरपट्टी, एक रिमोट कंट्रोल, एक हथौड़ी और कॉम्बिनेशन प्लायर जैसे कई औज़ार चंद्रमा की सतह में बिखरे हुये थे।
चंद्रमा पर क्योंकि न तो हवा है और न बरसात होती है, इसलिए सब कुछ सड़े-गले बिना आज भी वैसा ही पड़ा होना चाहिये, जैसा पहले दिन था। भावी चंद्रयात्रियों को यदि उनके रूप-रंग में कोई परिवर्तन मिलता है, तो वह दिन में तेज़ धूप, दिन और रात के तापमान में 290 डिग्री सेल्सियस तक के अंतरों और सूर्य से आ रहे रेडियोधर्मी विकिरण का ही परिणाम हो सकता है।
चंद्रमा पर पड़े कचरे का अध्ययन वैज्ञानिक शोध का नया विषय भी हो सकता है। जर्मनी में बर्लिन की एक फ़र्म दूरनियंत्रित रोबोट भेजकर ऐसी ही किसी जगह की जांच-परख करना चाहती है, जहां अमेरिका के चंद्रयात्री कुछ छोड़ आये हैं। उसका कहना है कि इन चीज़ों के साथ कोई छेड-छाड़ नहीं की जायेगी। ये चंद्रमा पर मनुष्य के पहुंचने के ऐतिहासिक स्मारकों जैसी धरोहर हैं।
दरअसल, रद्दी या कचरा बन गयी इन चीज़ों के चंद्रमा पर पहुंचने, वहां छोड़ देने या फेंक दिये जाने की शुरुआत नील आर्मस्ट्रांग के थैली फैकने से करीब 10 साल पहले 13 सितंबर 1959 को हुई थी। उस दिन तत्कालीन सोवियत संघ का चंद्रमा तक पहुंचने वाला पहला चंद्रयान ‘लूना2’ उससे टकराकर ध्वस्त हो गया था। ‘लूना2’ एक ही दिन पहले, 12 सितंबर 1959 को, प्रक्षेपित किया गया था। मात्र एक दिन 14 घंटे और 22 मिनट की उड़ान के बाद वह चंद्रमा के पास पहुंचते ही उससे टकरा गया। उसके सारे टुकड़े चंद्रमा पर मनुष्य-निर्मित पहला कचरा बने।
बाद में सोवियत संघ के ही कुछ और ‘लूना’ चंद्रयान वहां पहुंचे। 1966 में पहुंचा ‘लूना9’ ऐसा पहला यान था, जो बिना टूटे-फूटे चंद्रमा की सतह पर उतर पाया। उसने वहां के कुछ फ़ोटो भी पृथ्वी पर भेजे। लेकिन तीन ही दिन बाद उसकी बैटरी पूरी तरह डिस्चार्ज हो गयी और वह भी कूड़े में तब्दील हो गया।
समय के साथ अमेरिका, यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ‘ईएसए’, चीन, जापान और भारत ने भी अपने यान चंद्रमा पर भेजे। कुछ सफलतापूर्वक वहां उतरे और कुछ उससे टकराकर ध्वस्त हो गये। जो सफलतापूर्वक उतरे, उनका जीवनकाल बाद में समाप्त हो गया। वे भी अब रद्दी या कूड़े की ही तरह यहां-वहां पड़े हुये हैं। अब तक 30 से अधिक यान चंद्रमा पर उतरे हैं या उससे टकराकर नष्ट हो चुके हैं। सितंबर 2019 शुरू होने तक चंद्रमा पर पहुंचने के बाद उससे टकराकर नष्ट हो जाने वाला अंतिम यान ‘बेरेशीत’ था।
‘बेरेशीत’ मोरिस कान नाम के एक इसराइली अरबपति का निजी अभियान था। इसे अमेरिका के केप कैनेवरल से 22 फ़रवरी 2019 को प्रक्षेपित किया गया था। ग्यारह अप्रॆल 2019 को चंद्रमा पर गिरकर उसका अंत हो गया। बात इतनी ही होती, तो यहीं समाप्त हो जाती. चंद्रमा पर हुई यह ऐसी पहली दुर्घटना है, जिससे पहली बार, ऐसे हज़ारों सूक्ष्म कीड़े चंद्रमा पर पहुंचकर बिखर गये, जो इतने जीवट के हैं कि बिना हवा, पानी और भोजन के लंबे समय तक जीवित रह सकते हैं। उनका जीववैज्ञानिक नाम ‘फ़ाइलम टार्डिग्राडा’ है. अंग्रेज़ी में उन्हें ‘वाटर बेअर’ कहा जाता है।
एक मिलीमीटर से भी छोटे व आठ पैरों वाले इन जीवों के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि घोर सर्दी हो या गर्मी, हवा और आहार मिले या न मिले, वे कई-कई दशकों तक जीवित रह सकते हैं। यहां तक कि रेडियोधर्मी विकिरण भी उनका बाल बांका नहीं कर पाता। वैसे तो ये पानी या नमी वाली जगह पसंद करते हैं, पर पानी या नमी नहीं होने पर वे अपने भीतर की तरलता त्यागते हुए अपने आपको सुखाकर इस तरह निर्जीव-से बन जाते हैं कि वर्षों बाद जब भी नमी मिले, पुनर्जीवित हो सकते हैं।
आशंका यही है कि चंद्रमा पर पहुंच गये ‘वाटर बेअर’ वहां की घोर गर्मी और सर्दी ही नहीं, सौर एवं ब्रह्माडीय विकिरण को भी लंबे समय तक झेलकर जीवित रह सकते हैं। यदि बाद के चंद्रयात्रियों को वे जीवित मिले, तो इसका अर्थ यही होगा कि मनुष्य ने जीवनहीन चंद्रमा पर कूड़ा-करकट ही नहीं, जीवन भी पहुंचा दिया है।
अमेरिकी अंतरिक्षयात्रियों ने चंद्रमा पर कुछ ऐसी चीज़ें भी छोड़ी हैं, जिन्हें कचरा कहना उचित नहीं होगा। उदाहरण के लिए, अपोलो11 के नील आर्मस्ट्रांग और बज़ एल्ड्रिन ने वहां अमेरिका का राष्ट्रीय झंडा गाड़ा था। मैत्रीभाव के प्रतीक के तौर पर जैतून (ओलिव) के पेड़ की एक स्वर्णिम टहनी और पृथ्वी वासियों की ओर से सद्भावना-संदेश की एक फ्लॉपी डिस्क भी वहां रख छोड़ी थी।
दोनों ने जर्मनी में विशेष प्रकार के कांच का बना एक ऐसा दर्पण (रिफ्लेक्टर) भी वहां रखा, जो पृथ्वी से भेजी गयी लेज़र किरणों को परावर्तित करता है। उसकी सहायता से पहली बार पृथ्वी से चंद्रमा की सबसे सटीक दूरी नापी गयी। ‘ल्यूनर लेज़र रैंजिंग एक्स्पेरिमेंन्ट’ (एलएलआर) कहलाने वाले इस प्रयोग के लिए बाद में कुछ और दर्पण भी चंद्रमा पर रखे गये। उनका आज भी यह जानने के लिए उपयोग होता है कि चंद्रमा और पृथ्वी के बीच की दूरी किस गति से बढ़ रही है।
1971 में चंद्रमा पर गये एलन शेपर्ड ने गोल्फ़ की कुछ गेंदों को यह देखने के लिए शॉट लगाये कि वे चंद्रमा पर प़थ्वी की अपेक्षा कितनी दूर तक जाती हैं। चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के छठे हिस्से के ही बराबर है। गोल्फ की गेंदें वहां सचमुच काफी दूर जाकर गिरीं और अब भी वहीं पड़ी हुई हैं। चंद्रमा पर पहुंचने वाले दसवें अमेरिकी, चार्ल्स ड्यूक ने, वहां अपने परिवार का एक फ़ोटो छोड़ा। अपोलो15 के चंद्रयात्री जेम्स अर्विन ईसाई धर्मग्रंथ बाइबल की एक प्रति, बाज़ पक्षी का एक पंख और 100 बैंक नोट भी वहां छोड़ आये।
चंद्रमा पर जो सबसे भारी वस्तुएं पड़ी हुई हैं, उनमें अमेरिका के अपोलो अभियान वाले पांच रॉकेटों के सबसे ऊपरी हिस्से, उड़नखटोले-जैसे अवतरण यानों के पैरों वाले छह निचले हिस्से और बैटरी-चालित चार पहियों वाले वे तीन रोवर (मोटर वाहन) गिने जाते हैं, जिन पर बैठकर अंतिम अपोलो मिशनों के चंद्रयात्री वहां घूमे-फिरे थे। चंद्रमा की परिक्रमा करते हुए वहां गिर चुके चार अलग-अलग परिक्रमा-यान, चीनी रेडियो-रिले उपग्रह लोंगज्यांग-2 और इस वर्ष उस हिस्से पर पहली बार सुरक्षित उतर पाया चीनी अन्वेषणयान चांग’ए-4 भी इस गिनती में शामिल हैं। ये सब चंद्रमा के उस पृष्ठभाग पर पड़े हुए हैं जो पृथ्वी पर से कभी दिखायी नहीं पड़ता।
इस समय चंद्रमा की परिक्रमा कर रहा भारत का चंद्रयान-2 भी, अपने जीवनकाल के अंत में, कभी न कभी उस पर गिरकर ध्वस्त हो जायेगा। तब वह भी चांद पर निरंतर बढ़ रहे कचरे का एक हिस्सा बन जायेगा।
समझा जाता है कि चंद्रमा कोई कोई साढ़े चार अरब वर्ष पू्र्व मंगल ग्रह जितने बड़े किसी आकाशीय पिंड के पृथ्वी से टकराने से बना था। इस टक्कर से पृथ्वी के एक हिस्सा टूट कर अलग हो गया जो समय के साथ चंद्रमा बन गया। इसी कारण दोनों की संरचना में कई समानताएं मिलती हैं।
पृथ्वी से भिन्न चंद्रमा के पास न तो अपना कोई वायुमंडल है और न ही चुंबकीय बलक्षेत्र। इस कारण जीव-जंतुओं के लिए प्राणघातक ब्रह्मांडीय विकिरण की बौछार वहां निरंतर चलती रहती है। दिन में जब सूर्य लंबवत ऊपर होता है, तब यहां का तापमान 130 डिग्री सेल्सियस तक चढ जाता है। रात में वह शून्य से 160 डिग्री सेल्सियस तक नीचे गिर जाता है। यानी, कुछ ही घंटों में तापमान 290 डिग्री तक ऊपर-नीचे हो जाता है।
जब से पता चला है कि चंद्रमा पर भी पानी है, कई दुर्लभ धातुएं हैं और हाइड्रोजन के ऐसे आइसोटोप भी हैं, जो परमाणु-ईंधन का काम कर सकते हैं, तब से चंद्रमा पर पहुंचने की एक नयी होड़-सी लगती दिख रही है।