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आज विश्व विरासत दिवस पर विशेष: काशीपुर के गोविषाण में छुपा है कई कालों का रहस्य, प्रख्यात लेखक हेमचंद्र सकलानी की क़लम से

लेखक हेमचंद्र सकलानी जाने माने साहित्यकार

कुछ समय पूर्व काशीपुर का द्रोणासागर क्षेत्र तथा चैंती चौराहा गोविषाण के पुरातत्व कालीन अवशेषों की खोज की दृष्टि से खुदाई के कारण काफी सुर्खियों में रहा।प्राचीनता और इतिहास की दृष्टि से काशीपुर उत्तराखण्ड का एक प्राचीनतम स्थल माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थों में यहाॅं के गोविषाण नगर को तत्कालीन समय की राजधानी तथा समृद्ध नगर कहा गया है। यही कारण है देश के प्रसिद्ध पुरातत्वेताओं के संरक्षण में यहाॅं उत्खनन का कार्य प्रारम्भ हुआ तथा इतिहास को खंगालने का प्रयास किया गया। फलस्वरूप तत्कालीन नगर के अवशेष मिलने प्रारम्भ हुये। अब तक पाॅंच स्थान पर उत्खनन का कार्य हुआ है। काशीपुर से एक किलोमीटर दूर द्रोण किले के अन्दर तीन तथा बाहरी हिस्सों में दो जगह खुदाई हुई। गोरया मिल की तरफ उत्तरी भाग वाले हिस्से में, किले के बीच में तथा किले के दक्षिण भाग वाले हिस्से में उत्खनन का कार्य हुआ। किले के बाहरी भाग में जो उत्खनन हुआ, वह एक तो चैंती मोड़ पर जागेश्वर मंदिर के पास हुआ। दूसरा डमरू वाले बाबा मंदिर के पीछे उत्खनन का कार्य हुआ।

काशीपुर-खटीमा मार्ग पर काशीपुर शहर से बाहर निकलते ही मार्ग के उत्तर पूर्व की ओर एक बड़ी सी झील दिखाई पड़ती है, इसे प्राचीनकाल से द्रोण सागर के नाम से जाना जाता है। आचार्य द्रोण के नाम पर इस झील का नाम द्रोण सागर पड़ा। कहा जाता है कि दुरुपत और द्रोण दोनों एक ही गुरु के शिष्य थे। महाभारत में यह प्रसंग वर्णित है कि एक बार दुरुपत ने द्रोण को बहुत अपमानित किया। द्रोण बाद में आचार्य बनकर द्रोणाचार्य कहलाये। बाद में उन्होंने पाण्डवों को धनुष विद्या में पारंगत किया, जब पाण्डवों ने गुरु दक्षिणा देनी चाही तब बदले में पाण्डवों से गुरु दक्षिणा में द्रोणाचार्य ने दुरुपत को मांगा। पाण्डवों ने युद्ध में दुरुपत को परास्त किया और उसे द्रोणाचार्य को सौंप दिया। आचार्य द्रोण ने तब दुरुपत से आधा राज्य ले लिया। उस क्षेत्र में एक किला भी था और झील भी। तब से किले को द्रोण का किला तथा झील को द्रोण सागर कहा जाता है।द्रोण सागर (झील) के पास से गुजर कर एक टीले पर सीढियां चढ़ कर जब पूर्व की ओर उतर कर देखते हैं तब मीलों दूर तक उस बीहड़ में झाड़ियाॅं और जमीन से बाहर झांकती हजार्रों इंटें दिखाई पड़ती हैं। अब कहीं-कहीं खेत बनाकर फसल बो दी गई है। कहीं-कहीं दूर भवनों का निर्माण हो गया है। कुल मिला कर जैसा पूरे देश में अतिक्रमण और कब्जे करने की बीमारी फैली हुई है उससे गोविषाण का यह प्राचीन क्षेत्र (टीला) भी अछूता नहीं रह गया। एक प्रश्न अवश्य उठता है इस क्षेत्र में वर्षों से जब यहाॅं कोई बस्ती नहीं थी, तब फिर ये ईंटे कहाॅं से आयीं। इस सुनसान और झाड़ियों से आच्छादित बीहड़ से दूर-दूर तक गुजरना मुझे अजीब सा लगा।

पुरातत्वेताओं को विभिन्न स्थानों पर उत्खनन के दौरान पांच कालों के अवशेष प्राप्त हुये हैं। (1) महाभारत काल (2) कुषाण काल (3) अर्ली गुप्त काल (4) गुप्त काल (5) सल्तनत काल। चैंती चैराहा जो जागेश्वर मंदिर के पास ही है के टीले में हुई खुदाई के समय ऐसा पुरातत्वकालीन अवशेष मिला जो दर्शनीय है। इसका ढांचा देखने में तो स्तूप जैसा लगता है मगर यह स्तूप नहीं है क्योंकि इसके साथ ही सीढ़ियां भी दिखाई पड़ती हैं। जोकि सामान्यतः प्राचीन कालीन स्तूपों में नहीं पायी गयी। यहाॅं पर एक गर्भ गृह भी मिला आठ फुट लम्बा आठ फुट चैड़ा। काफी कुछ शोध के बाद इतिहासकारों ने इसे मन्दिर बताया। यहाॅं इस मंदिर की खूबसूरत दीवारें दिखाई पड़ती हैं। भारतीय सर्वेक्षणकत्र्ताओं एवं पुरातत्वेताओं ने भी इसके मंदिर होने की पुष्टि की है। प्रसिद्ध इतिहासकार लेखक डा0 मदन चन्द्र भट्ट के अनुसार उत्खनन में उपलब्ध स्मारक एक राजनैतिक केन्द्र की ओर संकेत करते हैं। यहाॅं शुंगकालीन (185-72 ई0 र्पू0) शासक राजा मातृमित्र और राजा पृथ्वीमित्र के इष्ट का लेख (ईंटों पर उत्कीर्ण लेख) भी मिले हैं।

उत्खनन के समय करीब 8 फुट लम्बा आठवीं सदी के पत्थर का स्तम्भ तथा 11वीं सदी से 12वीं सदी ईसा पूर्व का, एक चित्रित धूसर रंग के बर्तन मिलने को पुरातत्वविद तथा इतिहासकार डा़ धर्म देव शर्मा प्रतिहार कालीन व चित्रित धूसर रंग के बर्तन को 11वीं-12वीं सदी ईसा पूर्व का बताया। पुरातत्वविद कनिघम ने गोविषाण के किले मे विशाल मंदिर होने की सम्भावना जतायी थी। निसंदेह गोविषाण किले के आसपास कई कालोें की संस्कृति के अवशेष दबे होने की सम्भावना पुरातत्वविदों द्वारा बतायी गयी है। उत्खन्न के दौरान द्रोण सागर के निकट 13वीं शताब्दी की सीढ़ियां प्राप्त हुई हैं। डा. शर्मा का मानना है कि यदि उत्खन्न कार्य चलता रहा तो यहाॅं हवेन सांग द्वारा वर्णित विशालकाय तीस मंदिरों की श्रंखला मिलेगी। सीढ़ियों तथा नालियों के मिलने से मंदिरों के होने की सम्भावना बलवती हुई है। चैंती चैॅराहे पर बौद्व स्तूप होने की सम्भावना टिले के निकट कुषाण काल की सुंदर सुदृड़ ईंटों से बनी दीवार के रूप मे दिखाइ्र्र पड़ती है। हवेन सांग ने खड़क पुर गाॅंव के निकट दो बौद्व स्तूपों का उल्लेख किया था।

गोविषाण शब्द’ दो शब्दों से (गाय) और विषाण (सींग) से बना है। जिसका डा0 मदन चन्द्र भट्ट जी के अनुसार सीधा अर्थ है गाय का सींग। कहते हैं गौतक बुद्ध अपने छोटे भाई को इस हिमवंत अर्थात हिमालयी प्रदेशों में घुमाने लाये थे, ताकि वह इस क्षेत्र की धर्म प्रधान जनता की प्रकृति संस्कृति से प्रभावित होकर सांसारिक मोह माया को त्याग सके। उस समय इस क्षेत्र में अनेक आश्रम, धर्म और शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए थे। क्योंकि यहाॅं से मार्ग तिब्बत और कैलाश मानसरोवर को जाता था। अतः कत्यूरी और चांदवंशी राजाओं ने यात्रियों के लिए मार्गों पर अनेक प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करायी थीं। इन्हीं मार्गों से बौद्ध भिक्षुक बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए तिब्बत, चीन जाते थे। गौतम बुद्ध की यात्रा के कारण ही गोविषाण शब्द इस स्थान के लिए सबसे पहले प्रचलित हुआ था। बाद में राजा महापदमानंद के पुत्र के नाम का उल्लेख गोविषाण के रूप में कहीं-कहीं मिलता है।
आगे डमरू वाले मन्दिर के पीछे भी एक मंदिर के अवशेष प्राप्त हुये हैं। ये सभी अवशेष किले के बाहरी भाग में प्राप्त हुये हैं। अन्दर के भाग में गोरया पेपर मिल की तरफ किले की बारह फुट मोटी खूबसूरत दीवार मिली है। दक्षिणी भाग में किले के द्वार के अवशेष प्राप्त हुये हैं। बीच वाले भाग में कई काल के अवशेष प्राप्त हुये हैं। जिसमें से एक बेहद आकर्षक बड़ा घड़ा है। किले के अन्दर प्रवेश करते ही हम सल्तन काल के ऊपर घूमते नजर आते हैं। इसके नीचे की पर्त कुषाण काल की है, और उसके नीचे अर्ली गुप्त काल, फिर उसके नीचे गुप्तकाल के अवशेष मिलते हैं। गुप्तकाल के बाद और नीचे महाभारत काल के अवशेष मिले हैं। कुछ लोगों का मानना है कि गोविषाण में उत्खनन के दौरान मिले मंदिर अवशेष बौद्ध कालीन मंदिर के अवशेष हैं। महान इतिहासकार कनिघंम ने काशीपुर से ढेड किलोमीटर दूर उज्जैन गाॅंव के प्राचीन दुर्ग के अवशेषों को गोविषाण नगर के अवशेष बताया। चीनी यात्री ह्वेंगसांग ने सातवीं ई0 के मध्य सम्राट आशोक के शासनकाल में गोविषाण की यात्रा की थी। इस स्थान को उसने अपनी पुस्तक सी.यू.की. में चीनी भाषा में ‘क्यु पी सोएगा’ शब्दों से सम्बोधित किया जिसका अंग्रेजी में शब्द गोविषाण हुआ। उसने भी अपने यात्रा वृतांत में गोविषाण में बौद्ध संस्कृति का उल्लेख किया था तथा यहाॅं पर एक विशाल बौद्ध स्तूप होना बताया था, जिसमें भगवान बुद्ध के अवशेष इस बौद्ध मंदिर में सुरक्षित होना बताया था। चीनी यात्री युवान ज्यांग ने जो सातवीं शताब्दी में भारत भ्रमण पर आया था’ उसने गोविषाण की यात्रा की थी ‘ने अपने वृतान्त में लिखा था कि उस समय गोविषाण के निवासी सत्यवादी, ईमानदार, धार्मिक प्रवृति वाले तथा ब्राह्मण धर्म को मानने वाले थे। यहाॅं तब दो विहार थे जहाॅं बौद्ध भिक्षुक रहा करते थे। गोविषाण नगर का क्षेत्रफल लगभग ढेड़ से दो वर्ग मील के बीच था। यह सही भी प्रतीत होता है क्योंकि द्रोणा सागर और जागेश्वर मंदिर के बीच की दूरी लगभग इतनी ही है।

डा0 मदन चन्द्र भट्ट के अनुसार लंका से प्राप्त दीपवंश और महावंश नामक बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि मौर्य सम्राट अशोक के शासन काल में 251 ई0 पू0 में बौद्धों का तीसरा महासम्मेलन पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुआ था उसके बाद धर्म प्रचार के लिए बौद्ध भिक्षुकों की टोलियां चारों ओर निकल पड़ी थीं। उसी दौरान भिक्षु मज्झिम के नेतृत्व में पांच बौद्ध भिक्षुक धर्मप्रचार के लिए हिमवंत प्रदेश अर्थात इस हिमालय की ओर आये थे। कहते हैं सातवीं ‘शताब्दी में’ टनकपुर काशीपुर से लेकर बरेली तक गोविषाण राज्य था। गोविषाण के बाद ह्वेनसांग कालसी, लाखामण्डल, बड़कोट, पुरोला, गंगोत्री होते हुए (गंगा का उद्गम स्थल मानते हुए) क्योंकि गऊमुख तब जाना सम्भव नहीं था, हरिद्वार पहुंॅंचा होगा। यहाॅं से मोरध्वज, खैरागढ़, हवालबाग, ब्रहमेश्वर, वीरणेश्वर, और रामेेश्वर, व्यानधूरा, अल्मोड़ा, जागेश्वर की ओर गया होगा। ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वर्णन में इनमें से अनेक स्थानों का वर्णन किया है।

यह सोच कर भी आज आश्चर्य होता है कि प्रकृति ने किस तरह का रौद्र रूप कालान्तर में रचा कि एक के बाद एक काल की सभ्यता-संस्कृति परत दर परत एक दूसरे के नीचे दबती चली गई। आज भी भूगर्भ से विशाल चैड़ी ईंटों की दीवारें खड़ी अवस्था में प्राप्त हो रही हैं। बड़े क्षेत्र में जमीन से झाॅंकती ईंटें कौतूहल पैदा करती हैं। वर्तमान में इस सम्पूर्ण क्षेत्र का पुरातत्व की दृष्टि से उत्खनन नहीं हो पाया। जो हुआ भी उसे बीच में रोक दिया गया। वर्षा से बचाने के लिये प्लास्टिक का तिरपाल डाल कर इन अवशेषों को सुरक्षित रखने का बेहद बचकाना और असफल प्रयास किया जा रहा है। हमारी एक संस्कृति, एक सभ्यता, एक इतिहास हमें आवाज दे रहा है। इससे पहले की हमारी यह प्राचीन धरोहर नष्ट हो जाय, विलुप्त हो जाये यहाॅं शीघ्र उत्खनन कार्य, प्रारम्भ होना आवश्यक है तथा गोविषाण पर शोध के कार्य प्रारम्भ होने चाहिये।

नोट:शब्द दूत के अनुरोध पर श्री हेमचंद्र सकलानी जी ने यह लेख प्रकाशित करने की अनुमति दी है। इतिहास की जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए शब्द दूत उनका आभार प्रकट करता है।-विनोद भगत, संपादक 

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