विडंबना है कि भारत में आज तक जल संचयन पर कोई ठोस काम किया ही नहीं गया। देश में जितना खर्च जल निकासी पर किया जाता है, उसका आधा भी अगर संचयन पर खर्च हो तो बात बन जाये।
जबकि हर साल मानसून में आधा भारत बाढ़ की चपेट में आ जाता है, लेकिन तब भी ये बाढ़ सरकारों को कभी भी परेशान नहीं करती। इसके ठीक उलट बाढ़ नेताओं और नौकरशाहों को हवाई सर्वेक्षण का मौका मुहैय्या कराती हैं या सरकारी इमदाद से माल बनाने का। बाढ़ सरकारों को आंकड़ेबाजी करने का भी अवसर देती है। बाढ़ इस देश के ‘जिम्मेदार’ मीडिया के एंकरों को भी चेहरा चमकाने के मौका देती है।
पूर्वोत्तर के असम से लेकर पश्चिम बंगाल, बिहार में और यहां तक कि पंजाब और उत्तर प्रदेश में बाढ़ का तांडव हज़ारों नागरिकों को लील जाता है। करोड़ों की संपत्ति का नुकसान होता है अलग से। लेकिन, मज़ाल ही क्या कि सरकारें चेत जायें।
उत्तराखंड की सरकारें अभी तक जल संचयन के नाम पर फिसड्डी ही साबित हुई हैं। आलम ये है कि मई-जून का महीना आते-आते सड़कों पर लगे हैंडपम्पों पर ग्रामीणों की लंबी-लंबी कतारें दिखने लगती हैं। गंगा और यमुना के मैतियों (मायके वालों) के ही हलक सूखने लगते हैं। मज़े की बात तो ये कि सरकारें भी तभी इसका हल ढूंढने के प्रहसन करती हैं, जब भूमिगत जल सैकड़ों फ़ीट नीचे चला जाता है।