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क्यों जुटानी पड़ती है नेताओं के लिए भीड़@वरिष्ठ पत्रकार राकेश अचल की बेबाक कलम से

भारत जैसे बड़े देश में क्या ऐसा कोई नेता नहीं है जिसे सुनने के लिए लोग मीलों पैदल चलकर आते हों ? क्या वजह है कि आज नेताओं की आम सभाओं के लिए भीड़ जुटाने के लिए राजनीतिक दलों और सरकारों को एड़ी-छोटी का जोर लगना पड़ता है ? ये सवाल अब बहस का मुद्दा नहीं रहा ,लेकिन प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की प्रस्तावित मध्यप्रदेश यात्रा को लेकर इस सवाल की प्रासंगिकता बढ़ गयी है .

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी 17 सितंबर को चंबल संभाग के श्योपुर में कूनो-पालपुर अभ्यारण्य में अफ़्रीकी चीतों को देखने आ रहे हैं.उनके इस दौरे के समय कराहल में एक जन सभा भी आयोजित की गयी है. इसमें कोई एक लाख लोगों को जुटाने का लक्ष्य रखा गया है. स्व -सहायता समूहों से लेकर तमाम विभागों को भीड़ जुटाने का लक्ष्य दिया गया है .भीड़ जुटाने में प्रशासन को पसीना आ रहा है .

प्रधानमंत्रियों की सभाओं के लिए पहले भी भीड़ जुटाने के लिए सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता था,लेकिन अब भीड़ जुटाना केवल सरकार का काम है .देश में स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी के बाद किसी भी दल के पास ऐसा कोई नेता नहीं रहा जिसके नाम पर भीड़ अपने आप एकत्र हो जाये .अटल जी से पहले श्रीमती इंदिरा गाँधी को देखने और सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी ,लेकिन अब किसी के नाम पर भीड़ नहीं उमड़ती .मैंने अतीत में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर भीड़ को उमड़ते देखा है ,किन्तु अब कोई ऐसा नेता नहीं जिसे सुनने और देखने के लिए भीड़ अपने खर्चे अपर सभा स्थल तक पहुंचती हो .

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे ज्यादा चर्चित और कथित तौर पर लोकप्रिय नेता हैं किन्तु उनके नाम पर भी भीड़ नहीं जुटती .उनके लिए भी भीड़ जुटाना पड़ती है .भीड़ जुटाने का सारा जिम्मा सरकार का होता है. संगठन उसमें सहायक होता है .करहल में भीड़ जुटाने के लिए सरकार के सभी विभाग प्राणपण से जुटे हैं. परिवहन विभाग वाहन उपलब्ध करा रहा है ,तो महिला-बाल विकास विभाग आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और जिला पंचायतें स्व सहायता समूहों के जरिये भीड़ जुटाने में लगे हैं .पूरी नौकरशाही इस भीड़ जोड़ो अभियान का समन्वय कर रही है .

प्रधानमंत्री जी की सभा आदिवासी बहुल करहल कसबे में होना है लेकिन भीड़ श्योपुर,शिवपुरी,गुना,और ग्वालियर से ले जाई जा रही है .भीड़ के लाने-ले जाने के लिए वाहनों के अलावा भीड़ के खान-पान की व्यवस्था भी की गयी है. जिलों के प्रभारी मंत्री अलग से भीड़ जुटाने के सरकारी अभियान की देखरेख कर रहे हैं .भीड़ के साथ प्रधानमंत्री की सभा के प्रसार-प्रचार के लिए पूरा जनसम्पर्क विभाग लगा हुआ है सो अलग .

सवाल ये नहीं है कि भीड़ जुटाने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया जा रहा है ,सवाल ये है कि भीड़ स्वस्फूर्त होकर प्रधानमंत्री जी को सुनने क्यों नहीं जा रही ? क्या भीड़ की आदतें बिगड़ गयीं हैं ,या फिर नेताओं का चुंबकत्व समाप्त हो गया है ? क्या नेता अब पुराने नेताओं की तरह विश्वसनीय नहीं रहे या वे ऐसा कुछ नया कह और कर नहीं पाते जिसे देखकर आम जनता आकर्षित हो सके .

भीड़ जुटाने की समस्या केवल सत्तारूढ़ दल की ही नहीं बल्कि सभी राजनीतिक दलों की है भले ही वे सत्ता में हों या न हों ?भारत जोड़ो पदयात्रा पर निकले कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की पदयात्रा के लिए भीड़ जुटाना एक टेढ़ी खीर साबित हो रही है,बावजूद इसके अभी भी राहुल के नाम पर भीड़ जुट रही है .भीड़ जुटाने के लिए जन प्रतिनिधियों को अपनी अंटी ढीली करना पड़ रही है. सत्तारूढ़ दल के नेता तो अपनी अंटी ढीली भले ही नहीं करना पड़ती क्योंकि उनका खर्च सरकारी महकमें उठा लेते हैं .भीड़ जुटाने के लिए नैतिक,अनैतिक संसाधनों का इस्तेमाल या दुरूपयोग पर अब कोई बहस नहीं होती ,जबकि ये भी भ्र्ष्टाचार का एक रूप है .

सवाल ये है कि आखिर हमारे इस दौर के नेशनल हीरो अपना आकर्षण क्यों खोते जा रहे हैं ? क्या उनकी करनी और कथनी के बीच इतना अंतर् आ गया है कि भीड़ उन्हें सुनना नहीं चाहती या फिर सूचना क्रान्ति ने भीड़ को प्रभावित किया है ?अब प्रधानमंत्री से लेकर पार्षद तक की सभाएं सजीव मोबाइल पर उपलब्ध हैं ,ऐसे में कोई क्यों धक्के खाते हुए नेताओं को सुनने जाये ?प्रधानमंत्री जी पिछली बार जब हबीबगंज रेलवे स्टेशन का उद्घाटन करने आये थे तब भी पूरे प्रदेश से आदिवासियों को जमा करने के लिए सरकार को खासी मशक्क्त करना पड़ी थी.

प्रदेश का किसान अतिवृष्टि का शिकार है. उसकी फसलें खराब हो चुकी हैं.किसानों को लहसुन का सही मूल्य नहीं मिल रहा है लेकिन सरकार को फ़िक्र नहीं . किसान प्रधानमंत्री को सुनने नहीं जना चाहता,किन्तु उसे हांका दिया जाता है .अब नेताओं पर लट्टू भीड़ नदारद है .अब नेता भीड़ पर लट्टू होते हैं .नेता बिना भीड़ के चैन से सो नहीं सकता .प्रशासन एक प्रधानमंत्री हो तो भीड़ जुटा भी ले अब तो रोज एक न एक केंद्रीय नेता उद्घाटन और शिलान्यास के बहाने जनता के बीच पहुंचना चाहते हैं .चुनावों का मौसम जो आने वाला है .भीड़ खींचने वाले नए नेताओं में ज्योतिरादित्य सिंधिया एक अपवाद हैं .उनके नाम पर अभी भी थोड़ी-बहुत भीड़ एकत्र हो जाती है .

आपको याद होगा कि अपना आकर्षण खो चुके नेताओं को पिछले दशक में भीड़ जुटाने के लिए फिल्म अभिनेताओं तक का सहारा लेना पड़ता था .हर दल के सामने भीड़ जुटाना एक चुनौती है .भीड़ जुटाना भी अब एक कला बन चुकी है. जिस नेता के पास जितनी अधिक भीड़ है उसे उतना ज्यादा महत्व दिया जाता है.नेताओं के लिए भीड़ के साथ भाड़ के रूप में सैकड़ों की संख्या में जवान भी ड्यूटी देता है .छोटे जिलों में तो इन सभी को विश्राम और भोजन की व्यवस्था करना पड़ती है सो अलग .
@ राकेश अचल

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