रोहित कुमार वर्मा की रिपोर्ट
उत्तराखंड के प्रसिद्ध जनपद चंपावत स्थित देवीधुरा का बग्वाल मेला आज आयोजित हुआ। इस मेले की प्रथा है कि इसमें पत्थर मार युद्ध होता है और एक व्यक्ति के बराबर खून चोटिल होने वाले निकलता है इसमें देवी देवताओं का वरदान है कि जिन लोगों का खून निकलता है उनको बिच्छू घास लगा कर सही किया जाता है इसमें एक व्यक्ति के बराबर खून देवियों को चढ़ता है एक व्यक्ति के खून के बराबर अगर खून भगवान के मेले में व्यक्ति चोटिल होने के बाद निकलता है तो देवीधुरा बग्वाल मेला स्वयं ही समाप्त हो जाता है।
चंपावत जिले के देवीधुरा में मां वाराही देवी के मंदिर के प्रांगण में हर साल रक्षाबंधन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को ‘बग्वाल’ खेली जाती है। बग्वाल के दौरान चार खेमों में बंटे ग्रामीण एक-दूसरे पर फल और फूल की दृष्टि से (फल-फूल समझकर) पत्थरों की बरसात करते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इसमें निशाना बनाकर पत्थर फेंकना बिल्कुल मना है, बल्कि बग्वाली वीर आसमान की तरफ पत्थर फेंककर उसे दूसरे खेमे में पहुंचाते हैं। प्रशासन ने पिछले कुछ सालों के दौरान पत्थर फेंकने को लेकर सख्ती दिखायी है, जिसके बाद अब नाशपाती जैसे फलों का उपयोग ज्यादा होता है। निश्चित तौर पर यह मेला ऐतिहासिक है, लेकिन यह कितना पुराना है इसको लेकर अलग अलग मत हैं। इस बात को लेकर आम सहमति है कि नर बलि की परम्परा के अवशेष के रूप में ही बग्वाल का आयोजन होता है। मान्यता है कि पहले मां वाराही देवी को खुश करने के लिए उनके मंदिर में नरबलि दी जाती थी। प्रतिवर्ष एक नरबलि की परंपरा थी और हर परिवार से बारी-बारी एक पुरुष की बलि होती थी। कहा जाता है कि एक वक्त ऐसा भी आया जब एक बुजुर्ग महिला की बारी आयी और उन्हें माता के दरबार में अपने बेटे की बलि देनी थी। उस बुजुर्ग महिला ने माता की अराधना की और उनसे कहा कि आपकी परंपरा को पूरा करने के लिए मैं अपने बेटे की बलि तो दे रही हूं, लेकिन इससे मेरे वंश का समूल नाश हो जाएगा। इसके बाद मां वाराही देवी ने उस बुजुर्ग महिला को आदेश दिया कि वह बग्वाल का आयोजन करवाए और पत्थरों की मार (बग्वाल) से प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा पर एक नरबलि के बराबर खून उन्हें चढ़ाए। इस प्रथा को आज भी बदस्तूर निभाया जाता है। यहां के लोगों का मानना है कि चंद शासन तक यहां श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नरबलि दी जाती थी।
इतिहासकारों की अगर मानें तो महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्ध में कौशल रखती थी। मान्यता है कि उस जाति ने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था। अगर यह बात सही है तो भी यह परंपरा काफी प्राचीन है। कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं सदी में शुरू हुई परंपरा मानते हैं। इस लिहाज से भी यह परंपरा लगभग हजार साल पुरानी तो है ही।
बग्वाल में चार खाम (खेमे) भाग लेते हैं। इनके नाम हैं – लमगड़िया खाम, गहड़वाल खाम, वालिक खाम और चमियाल खाम। इनकी टोलियां ढोल-नगाड़ों के साथ बांस की बनी छंतोली (छतरियों) के साथ अपने गांवों से जोश-खरोश और भारी उत्साह के साथ देवी वाराही के मंदिर प्रांगण (खोलीखाण दूबाचौड़) में पहुंचते हैं। चारों खेमों की टोलियां (लाल, गुलाबी, पीली और सफेद) रंग की पगड़ियां बांधकर यहां पहुंचती हैं। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं। दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करते हुए परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलते हैं। इसके बाद वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं।
रक्षाबंधन के दिन जब मैदान के चारों ओर जनसैलाब उमड़ पड़ता है, तब मंदिर के पुजारी बग्वाल शुरू होने की घोषणा करते हैं। इसके साथ चारों खामों के प्रमुखों की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से होती है। बग्वाली वीर छन्तोली से खुद की रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंकते हैं। धीरे-धीरे बगवाली वीर एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए मैदान के बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक नरबलि के बराबर खून बह गया होगा, तब वह मैदान में आकर बग्वाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है। बग्वाल का समापन शंखनाद से होता है। तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर बग्वाली वीर धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से विदा होते हैं। इस दौरान वहां लाइव कॉमेंट्री भी चलती रहती है। इस पूरे आयोजन में कई बग्वाली वीर घायल हो जाते हैं, जिनके लिए प्रशासन पहले से ही एंबुलेंस और फर्स्ट एड कीस व्यवस्था करके रखता है।