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ईद की मिठास कायम रखने का वक्त@राकेश अचल

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

बचपन से त्रेसठ के होने तक मुझे ईद का इन्तजार हमेशा रहता आया है .बचपन में हमें ईद दीवाली की तरह लकधक कपडे पहनने और मिठाइयां खाने का त्यौहार लगता था.न हम ईद की कहानी जानते थे और न किंवदंतियां .गांव में हमारे मुहल्ले में एक भी मुस्लिम परिवार न था लेकिन जब हम शहर में आये तो इशाक मियाँ हमारे सहपाठी हो गए .बाद में और बड़े हुए तो हमारे मकान में ही हमारे पिता जी के ही एक उत्तराधिकारी खान साहब रहने आ गए .उनके यहां भी ईद की रौनक हमारे जेहन में बसी है. पकी उम्र में तो न जाने कितने मुस्लिम परिवारों से राब्ता रहा .कासिम रसा साहब हमारे सबसे निकटतम पड़ौसी थे .

इशाक बचपन में अपने घर ईद पर मीठी सिमई खिलाने ले जाता था .उसकी अम्मी हम दोनों को कुछ पैसे देती थी ,इस खर्ची को ईदी कहा जाता है .ग्वालियर में तो हम लोग अक्सर हर ईद पर अपने मुस्लिम मित्रों से गले मिलने और ईद की मुबारकबाद देने ईदगाह जाते ही थे .हमारा गिरोह था जो ईद पर आपने मुस्लिम मित्रों के यहां बिला नागा मुबारकबाद देने के साथ ही पेटपूजा करने जाता ही था .लेकिन अब सब बदल सा गया है .पिछले सात-आठ साल में ईद पर नए कपडे पहनना,टोपी लगना ,अपने मुस्लिम मित्रों के घर जाना सहजता का नहीं हिम्मत का काम हो गया है .लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद हम लोगों ने हिम्मत नहीं हारी है. इस साल भी घर पर रोजा इफ्तार की दावत दी .

ऐसा माना जाता है कि पैगंबर मुहम्मद को पवित्र कुरान का पहला रहस्योद्घाटन रमजान के पवित्र महीने के दौरान किया था. ईद-उल-फितर ने रमजान के दौरान सुबह से शाम तक उपवास की समाप्ति और शव्वाल महीने की शुरुआत को चिह्नित किया. ईद-उल-फितर भी उपवास, प्रार्थना और सभी नकारात्मक कार्यों, विचारों और शब्दों से दूर रहने का एक सफल महीना होने का उत्सव है और यह अल्लाह को सम्मान देने का एक तरीका है

दरअसल ईद की मिठास कायम रखना अब हम सबकी दोहरी जिम्मेदारी हो गयी है. हमारे आज के दौर की सियासत की पूरी कोशिश मुस्लिम कौम को आतंकवादी ठहरा देने की है .नकली कहानियों किस्सों और उध्दरणों के जरिये मुसलमानों को खलानयक के रूप में पेश किया जा रहा है .ऐसे दौर में जब चौतरफा नफरत है,हिंसा है तब मुसलमानों को भी इसी उग्रता से अपनी राष्ट्रीय निष्ठाओं को उसी आवेग से प्रमाणित करने का प्रयास करना चाहिए वो भी बिना उत्तेजित हुए,बिना आपा खोये .ये बहुत कठिन काम है क्योंकि जैसे हिन्दुओं में कुछ ताकतें संकीर्णता के साथ व्यवहार करती हैं वैसे ही मुसलमानों में में भी कुछ ताकते हैं जो बेमतलब की उग्रता का प्रदर्शन करती हैं .हमें इन दोनों से सावधान रहना है.

ईद ये मौक़ा है जो ये साबित करने के लिए सही मौक़ा है की जो इस देश में पैदा हुआ है वो भारतीय पहले है ,हिन्दू -मुसलमान बाद में .हमें पहले भारतीय होकर ही रहना है ,कोई यदि इस शिनाख्त पर उंगली उठाते हैं तो हमें इसका सख्ती से प्रतिकार करना होगा .इस देश में पिछले 75 साल में जो कौम पैदा हुई है है वो हिन्दुस्तानी है ,उसकी अस्मिता ठीक उसी तरह सम्मान के लायक है जैसे किसी दूसरे देश के नागरिक की उसके देश में होती है .हमारा मक्का-मदीना ,हमारा काशी-काबा पहले हमारी मातृभूमि होना चाहिए .हमारी निष्ठाएं ,हमारा समर्पण पहले अपने देश के प्रति होना चाहिए .हमारे सजातीय यदि दूसरे मुल्कों में हैं तो वे केवल सजातीय हैं ,भारतीय नहीं .इसलिए उनके प्रति हमारी मुहब्बत की एक सीमा होना चाहिए .

देश का दुर्भाग्य है की इस बार खरगौन जैसे कस्बे में ईद कर्फ्यू के साये में मनाई जाएगी .खरगौन में रामनवमी पर हुई हिंसा के बाद वहां के हालात को मामूल पर लाने में हमारी सरकार,हमारे समाज नाकाम रहे हैं .[हमारे समाज से अर्थ हिन्दू और मुसलमान दोनों से है ]खरगौन में रामनवमी के जुलूस पर पथराव के बाद दंगे हुए थे ,आज एक पखवाड़े बाद भी खरगौन को कर्फ्यू से मुक्ति नहीं मिली है जबकि इतने समय में सब कुछ सामान्य हो जाना चाहिए था .सत्तारूढदल के साथ ही विपक्ष और दुसरे दलों तथा सामाजिक संगठनों ने खरगौन को मामूल पर लेन की या तो ईमानदारी से कोशिश नहीं की या ऐसी कोशिशें नाकाम रहीं .मुझे पूरा यकीन था की यदि माननीय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खरगोन में दो दिन भी कैंप कर लेते तो आज ईद के मौके पर खरगौन में कर्फ्यू लगाने की नौबत न आती .

बहरहाल बुनयादी बात ईद की मिठास को महफूज रखने की है .ईद हो या दीपावली तभी पपुरसुकूं हो सकतें हैं जबकि हम सब मिलकर ऐसा करने का संकल्प ले लें .हमें किसी के खान-पान ,रीति-रिवाज और पहनावे से ऐतराज न हो .अजान के वक्त हनुमान चालीसा और भजनों के वक्त अजान की जिद न हो .हम ऐसी तमाम चीजों को चिन्हित कर आपस में बैठकर हल खोज लें .राजसत्ता को इसमें दखल देने का मौक़ा ही न दें तो बात बन सकती है .उत्तर प्रदेश में पूजाघरों से ध्वनि विस्तारक यंत्र हटाए गए ,अच्छा हुआ .क्योंकि ये क्लेश की जड़ थे इन्हें लेकर सियासत हो रही थी .हम यदि तय कर लें तो ऐसे छोटे-छोटे मुद्दों को सियासत का औजार बनने से रोक सकते हैं .

कौन सा धर्म कितना नया और कौन सा कितना पुराना है ,ये बहस का मुद्दा आखिर क्यों है.?सरकारों को धर्मनिष्ठ होने से बचना चाहिए.धार्मिक आयोजनों से दूर रहना चाहिए ,धार्मिक आयोजन करना सरकार का नहीं समाज का काम है .अभी हाल में अनेक राज्योंमें अनेक पर्व,त्योहार सरकारी भागीदारी से सम्पन्न हुए. हमारे मध्यप्रदेश में दतिया गौरव दिवस की आड़ में माँ पीतांबरा जयंती सरकारी देखरेख में मनाई जा रही है .लेकिन किसी दूसरे धर्म का कोई त्यौहार किसी सरकार ने नहीं मनाया .ये प्रवृत्ति भारतीयता के भाव को कमजोर करती है ..सरकार किसी एक धर्म के लोगों ने नहीं चुनी होती.जनादेश साझा होता है .सरकारों को उज्जैन हो या अयोध्या या काशी कहीं भी दिए जलने के कीर्तिमान बनाने की क्या जरूरत है ?और यदि है तो सभी के तीज-त्यौहारों पर ऐसा कीजिये .

बहरहाल देश में हर धर्म का त्यौहार उत्साह,शांति और निश्चिंतता के साथ सम्पन्न हो देश में अमन -चैन को ताकत मिलेगी .भी का वातावरण दूर होगा,शंका-कुशंकाओं से मुक्ति मिलेगी .लेकिन ये सब तभी होगा जब साझा प्रयास हों .आप किसी एक वर्ग को खलनायक बनाकर देश को मजबूत नहीं बना सकते .आपके पास ऐसा कोई हथियार नहीं है जिसके जरिये आप देश के सतरंगी स्वरूप को एक रंग में रंगकर फारिग हो जाएँ .जो मुमकिन नहीं है उसे मुमकिन करने की कोशिश पागलपन है .हमें देश की तरक्की और विभूति के लिए इन छोटी-मोटी बाधाओं को खुद ही दूर करना होगा .यदि हम ये नहीं कर सकते तो हमारा आजादी की 75 वीं साल गिरह मनाने का कोई अधिकार नहीं है .बहरहाल ईद की सभी को हार्दिक बधाइयां .ऊपर वाला सबको सद्बुद्धि दे .
@ राकेश अचल

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