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प्रतिमाओं की राजनीति और हम@राकेश अचल

राकेश अचल, लेखक देश के जाने-माने पत्रकार और चिंतक हैं, कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में इनके आलेख प्रकाशित होते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के दुस्सहस को मै प्रणाम करता हूँ. वे सचमुच प्रणम्य हैं.पूरे देश को उन्हें प्रणाम करना चाहिए क्योंकि वे इस देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो देश के किसी भी प्रदेश की ही नहीं किसी भी तरह की पोषक पहनकर जनता के सामने प्रकट हो सकते हैं .शमशाबाद में वे जिस वेशभूषा में संत रामानुजाचार्य की प्रतिमा का अनावरण करने पहुंचे उसे देखकर मेरा सर उनके प्रति श्रद्धा से झुक गया. प्रधानमंत्री ने शमशाबाद पहुंचकर 11वीं सदी के संत रामानुजाचार्य की 216 फीट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया। यहां उन्होंने यज्ञशाला में पहुंचककर पूजा अर्चना भी की।

शमशाबाद के लोगों को संत रामानुजाचार्य के साथ मोदी जी का आभार इसलिए भी मानना चाहिए कि उन्होंने मूर्ति का अनावरण करने से पहले शमशाबाद का नाम बदलने की कोई राजाज्ञा जारी नहीं की या कराई ,अन्यथा इन दिनों देश में मुस्लिम शासकों के नाम से बसे तमाम शहरों के नाम बदलने का राष्ट्रीय अभियान देश में चल रहा है. हमारे प्रदेश में ही हुशंगशाह द्वारा बसाये गए होशंगाबाद का नाम बदलकर नर्मदापुरम कर दिया गया है .अल्लाहब्द पहले ही प्रयागराज हो चुका है.

देश में ये पहला मौक़ा है जब देश की छवि विशाल प्रतिमाओं के जरिये चमकाई जा रही है. नेताओं के साथ ही संतों तक की भीमकाय प्रतिमाएं बनाई जा रही हैं. गुजरात में सरदार बल्ल्भ भाई पटेल की प्रतिमा यदि लोहा- लंगड़ से बनवाई गयी तो संत रामानुजाचार्य की प्रतिमा अष्टधातु से .पटेल की प्रतिमा ‘ स्टैच्यू ऑफ यूनिटी ‘ कहलाई तो संत रामाजूजाचार्य की प्रतिमा ‘ स्टैच्यू ऑफ इक्वैलिटी ‘.कही जा रही है. एक प्रतिमा एकता का सन्देश देती है और दूसरी प्रतिमा समानता का सन्देश देगी .यानि अब महान लोगों की प्रतिमाएं संदेशवाहक का काम करेंगीं .मोदी जी ने जो काम सरकार को काम करना था उसे प्रतिमाओं के कन्धों पर रख दिया है .

विश्वगुरु बनने के लिए कुछ अलग करके दिखाना जरूरी है .जैसे पटेल की प्रतिमा स्टच्यू आफ लिबर्टी से भी ऊंची है लेकिन इस मामले में संत रामानुजाचार्य पटेल से पीछे ही रहे .उनकी प्रतिमा नेताजी सरदार पटेल की प्रतिमा से ऊंची नहीं बनाई जा सकी. नेता वैसे भी सबसे ऊंचे होते हैं,संतों से भी ऊंचे .नेता न होते तो भला संत की प्रतिमा इतनी ऊंची भी बन पाती क्या ?

पता नहीं कि हमारी सरकार को किसने बता दिया की ऊंची प्रतिमाओं से एकता और समानता के सन्देश ज्यादा दूर तक फैलाये जा सकते हैं,जबकि दुनिया में बिना ऊंची मूर्तियों के ये काम दुनिया के अलग -अलग देशों में छोटी प्रतिमाओं से भी चलाया जा रहा है. महात्मा गांधी की आदमकद प्रतिमाओं के जरिये ये काम बीती दो सदियों से दुनिया और देश में हो ही रहा है. मैंने वियतनाम में हो ची मिन्ह की प्रतिमा देखी बहुत छोटी थी लेकिन वे वियतनाम में भगवान की तरह पूजे जाते हैं. अमेरिका में अश्वेतों के नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर की प्रतिमा भी उतनी ही बड़ी है जितनी की वे थे ,लेकिन हम इस समय देश में ऊंची से ऊंची प्रतिमाएं बनाने का कीर्तिमान बनाने में लगे हुए हैं .
इसमें कोई संदेह नहीं की प्रतिमाएं महान लोगों के कार्यों की याद ताजा करने में सहायक होती हैं लेकिन कब तक ? हमारे देश में गांधी के बाद सबसे ज्यादा प्रतिमाएं पंडित जवाहरलाल नेहरू की लगाई गयीं.इंदिरा गांधी,राहुल गांधी के अलावा बाबा साहब आंबेडकर इस मामले में भाग्यशाली हैं लेकिन आज इन प्रतिमाओं के साथ क्या हो रहा है ? नेहरू सरकार के नंबर एक दुश्मन हैं .हमारे शहर ग्वालियर में राजा-रानियों की एक दर्जन प्रतिमाएं हैं लेकिन इससे क्या लाभ हो रहा है ग्वालियर को ? बहन मायावती ने जीते जी लखनऊ में अपनी प्रतिमाएं खड़ी करा दी थीं लेकिन क्या हुआ ? वे खुद राजनीति में खड़े रहने के लिए जद्दोजहद कर रहीं हैं .ये उदाहरण सिर्फ इसलिए दे रहा हूँ कि प्रतिमाएं कद से नहीं अपने कर्मों से पूज्य बनाई जाती हैं .

इतिहास गवाह है कि कोई भी देश हो आपने यहां प्रतिमाओं को आजीवन सम्मान नहीं दे पाता. सोवियत संघ में वहां के महान नेताओं की प्रतिमाओं का क्या हश्र हुआ ? सद्दाम हुसैन की प्रतिमाओं को क्रेन से लटकाकर उखाड़ा गया .इन्हें छोड़िये अफगानिस्तान के बामियान में दुनिया की सबसे बड़ी बुद्ध मूर्तियों को बारूद से उड़ा दिया गया .

दरअसल एकता और समानता मूर्तियां नहीं बल्कि व्यक्ति लाते हैं भले वे सत्ता में हों या सत्ता से बाहर .जब बोलने की जरूरत होती है तब खामोश रहने से न एकता आती है और न समानता .देश में जब धर्म संसद कि प्रस्तावों पर हमारे सत्तारूढ़ नेता मौन हो जाते हैं तब उनकी स्थिति भी मूर्तियों जैसी हो जाती है .मूर्तियां बोल कहाँ पाती हैं ?
संयोग से हम मूर्तिपूजक समाज का हिस्सा हैं. हमारे हर घर में किसी न किसी की मूर्ति विराजमान है .जो मूर्तिपूजक नहीं हैं वे भी प्रतीक कि रूप में तस्वीरें तो रखते ही हैं .लेकिन इससे मान्यताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता .मूर्तियों की पूजा करना निजी आस्था का मुद्दा है राष्ट्र का नहीं.अमेरिका में भी स्टेच्यू आफ लिबर्टी को पूजा नहीं जाता .उसके ऊपर मालाएं नहीं चढ़ाई जातीं.उसके नीचे खड़े होकर स्वतंत्रता की कसमें नहीं खाई जातीं लेकिन हमारे यहां मूर्तियां दुर्भाग्य से राजनीति का औजार बन गयीं हैं. इन बेजान मूर्तियों को इसी वजह से अक्सर राजनीतिक घृणा का शिकार होना पड़ता है .

आज समय आ गया है जब सरकारों को मूर्तियों की राजनीति से अपने आपको अलग कर लेना चाहिए .मूर्तियों की स्थापना का काम सरकार कि बजाय समाज करे तो ज्यादा बेहतर है .मूर्तियां लगाकर किसी देश में एकता और समानता स्थापित नहीं की जा सकती .इन दोनों कामों कि लिए सरकारों का धर्मनिरपेक्ष होना जरूरी है .सरकारें यदि मूर्तियों,मंदिरों ,मस्जिदों कि फेर में पड़ी रहेंगीं तो जनता का कल्याण कभी हो ही नहीं पायेगा .जनता का कल्याण करने कि लिए न मूर्तियां बनाने की जरूरत है और न मुफ्त राशन बांटने की जरूरत. जरूरत है ईमानदारी से सबको समान अवसर देने की जो हम दे नहीं पा रहे हैं .

हरहाल लौटकर प्रधानमंत्री जी के दुस्साहस पर आते हैं.उन्होंने रामानुजाचार्य की प्रतिमा अनावरण के समय ये नहीं कहा की वे बचपन में संत बनना चाहते थे .अन्यथा उनकी साधें अनंत हैं .प्रधानमंत्री जी मोदी हैं और मोदी ही बनें रहें तो बेहतर है .प्रधानमंत्री जी का आभार इसलिए भी माना जाना चाहिए कि उन्होंने हैदराबाद में वैज्ञानिकों,किसानों की बात की वरना किसान तो अभी भी उपेक्षित ही महसूस कर रहे हैं .प्रधानमंत्री जी की ही तरह मेरी भी साध है कि मै किसी दिन शमशाबाद जाकर वे ही अंग-वस्त्र धारण करूँ जो माननीय ने किये थे.

@ राकेश अचल

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