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पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है “हरेला”

 

आज उत्तराखंड का सांस्कृतिक पर्व ‘हरेला’ घर घर में मनाया जा रहा है। आज के दिन माताएं और परिवार की बुजुर्ग महिलाएं अपने पुत्र-पौत्रों को संघर्षपूर्ण जीवन-रण में ‘विजयी भव’ होने का आशीर्वाद देते हुए स्थानीय भाषा में कहती हैं-

“जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये,
दुब जस हरी जड़ हो, ब्यर जस फइये,।
हिमाल में ह्यूं छन तक,
गंग ज्यू में पांणि छन तक,
यो दिन और यो मास भेटनैं रये,
अगासाक चार उकाव, धरती चार चकाव है जये,
स्याव कस बुद्धि हो, स्यू जस पराण हो।”

अर्थात् “हरेला तुम्हारे लिए शुभ होवे, तुम जीवन पथ पर विजयी बनो, जागृत बने रहो, समृद्ध बनो, तरक्की करो, दूब घास की तरह तुम्हारी जड़ सदा हरी रहे, बेर के पेड़ की तरह तुम्हारा परिवार फूले और फले। जब तक कि हिमालय में बर्फ है, गंगा में पानी है, तब तक ये शुभ दिन, मास तुम्हारे जीवन में आते रहें। आकाश की तरह ऊंचे हो जाओ, धरती की तरह चौड़े बन जाओ, सियार की सी तुम्हारी बुद्धि होवे, शेर की तरह तुम में प्राणशक्ति हो” – ये ही वे आशीर्वचन और दुआएं हैं जो हरेले के अवसर पर घर के बड़े बूढ़े व बजुर्ग महिलाएं बच्चों, युवाओं और बेटियों के सिर में हरेले की पीली पत्तियों को रखते हुए देती हैं। दूर प्रवास में रहने वाले परिजनों को भी वर्ष भर हरेले की इन पीली पत्तियों का इन्तजार रहता है कि कब चिट्ठी आए और कब वे हरेले की इन पत्तियों के रूप में अपने बुजुर्गों का शुभ आशीर्वाद शिरोधार्य कर सकें।हरेला उत्तराखंड का एक प्रमुख सांस्कृतिक त्योहार होने के साथ साथ यहां की परंपरागत कृषि से जुड़ा सामाजिक और कृषि वैज्ञानिक महोत्सव भी है। उत्तम खेती, हरियाली, धनधान्य, सुख -संपन्नता आदि से इस त्यौहार का घनिष्ठ सम्बंध रहा है। माना जाता है कि जिस घर में हरेले के पौधे जितने बड़े होते हैं, उसके खेतों में उस वर्ष उतनी ही अच्छी फसल होती है। हरेला उगाने के लिए पांच अथवा सात अनाज गेहूं, जौ, मक्का, सरसों, गौहत, कौंड़ी, धान और भट्ट आदि के बीज घर के भीतर छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में बोये जाते हैं, और प्रतिदिन नियमानुसार सुबह-शाम पूजा के बाद पानी दिया जाता है। धूप की रोशनी न मिलने के कारण ये अनाज के पौधे पीले हो जाते हैं। 10वें दिन संक्रान्ति को हरेला काटा जाता है। घर के मन्दिरों और गृह द्वारों में सबसे पहले हरेला चढ़ाया जाता है और फिर घर के बड़े बूढ़े बुजुर्ग लोग बच्चों, युवाओं, पुत्र, पुत्रियों, नाती, पोतों के पांवों से छुआते हुए ऊपर की ओर शरीर पर स्पर्श कराते हुए हरेले की पत्तियों को शिर में चढ़ाते हैं तथा “जी रये, जागि रये, तिष्टिये, पनपिये ” बोलते हुए आशीर्वाद देते हैं।

‘हरेला’ महोत्सव मात्र एक संक्राति नहीं बल्कि कृषि तथा वानिकी को प्रोत्साहित करने वाली हरित क्रान्ति का निरन्तर रूप से चलने वाला वार्षिक अभियान भी है जिस पर हमारी जीवनचर्या टिकी हुई है तथा उत्तराखंड राज्य की हरियाली और खुशहाली भी। इसलिए हरित क्रान्ति के इस अभियान पर विराम नहीं लगना चाहिए। हरेले का मातृ–प्रसाद हमें साल में एक बार संक्राति के दिन मिलता है परन्तु धरती माता की हरियाली पूरे साल भर चाहिए। यही कारण है कि उत्तराखंड कृषि प्रधान प्रदेश होने के कारण हमारे पूर्वजों ने साल में तीन बार हरेला बोने और काटने की परंपरा का सूत्रपात किया और सबसे पहले धान की खेती के आविष्कार का श्रेय भी इन्हीं उत्तराखंड के आर्य किसानों को मिला।हरेला उत्तराखंड के आर्य किसानों का पहाड़ी और पथरीली धरती में हरित क्रान्ति लाने की नव ऊर्जा भरने का लोकपर्व भी है। किसी जमाने में हरेला पर्व से ही आगामी साल भर के कृषि कार्यों का शुभारम्भ धरती पर हुआ करता था। सावन–भादो के पूरे दो महीने हमें प्रकृति माता ने इसलिए दिए हैं ताकि बंजर भूमि को भी उपजाऊ बना सकें, उसे शाक–सब्जी उगा कर हरा भरा रख सकें। धान की रोपाई और गोड़ाई के द्वारा इन बरसात के महीनों का सदुपयोग किया सकता है। समस्त उत्तराखंड आज जल संकट और पलायन की विभीषिका को झेल रहा है उसका कारण यह है कि परंपरागत खाल, तालाब आदि जलभंडारण के स्रोत सूख गए हैं उन्हें भी इन्हीं बरसात के मौसम में पुनर्जीवित किया जा सकता है।

आज हम हरेले के पावन अवसर पर उत्तराखंड में हरित क्रांति के इस विचार को पुनर्जीवित करना इसलिए भी जरूरी समझते हैं कि उत्तराखंड राज्का गठन जिन खुशहाली के सपनों को पूरा करने के लिए किया गया था वे सपने अब तक अधूरे ही रहे हैं। हिमालय क्षेत्र के तीन प्रमुख राज्यों – जम्मू कश्मीर, हिमाचलप्रदेश और उत्तराखंड में से उत्तराखंड राज्य आज कृषि और सिंचाई के संसाधनों की दृष्टि से सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ और विपदा ग्रस्त राज्य है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यहां पलायन सबसे ज्यादा हुआ है। उसका एक मुख्य कारण है राज्य सरकारों द्वारा जल, जमीन से जुड़े कृषि के संसाधनों के प्रति घोर उपेक्षा भाव रखना। यहां जिस पार्टी की भी सरकार बनी है कृषिपरक रोजगार के लिए उसने कुछ नहीं किया। उत्तराखंड के जाने माने लोक कवि हीरासिंह राणा ने पहाड़ के पलायन की इस पीड़ा को बयां करते हुए कहा है –

“कैकणी सुणानू पहाड़ै डाड़,
काट्यी ग्यीं जंगल सुकिगे गाड़ ।
सब्ब ज्वान नान् यां बटि न्है गई टाड़।।
क्वे सुणों पहाड़कि दुःखों कहाणी,
जै शिव शंकर जै हो भवानी॥”

इतने घनघोर संकट के बावजूद भी जितनी भी हरियाली आज यहां उत्तराखंड में बची है वह इस देव भूमि में विराजमान देवताओं का आशीर्वाद, प्रकृति परमेश्वरी का कृपा प्रसाद और हमारी तपस्यारत नारी शक्ति के कठोर परिश्रम का फल है। कर्मयोगी पर्वतीय हलवाहों और धैर्यशाली मेहनतकश बैलों ने यहां खेती को आबाद कर रखा है। मां, बेटी, बहन तथा पत्नी के रूप में नारीशक्ति की इस राज्य को खुशहाल बनाने में अहम भूमिका रही है। वह नारी शक्ति ही आज भी उत्तराखंड को हरित क्रांति से जोड़ने के लिए संघर्षशील है। पलायन के भारी संकट के बाद भी हम जहां इधर उधर एक दूसरे पर आरोप मढ़ने में लगे हैं वहां पहाड़ की नारीशक्ति इस सावन के महीने में बंजर खेतों को हरा भरा करने के लिए अपने दुख सुख की परवाह किए बिना जी जान से जुटी है। उत्तराखंड के जाने माने लोक कवि हीरासिंह राणा के शब्दों के माध्यम से हम उत्तराखंड की मातृ भूमि को हरेला लगाने वाली इस नारीशक्ति को नमन करते हैं –

“भ्योव पहाड़ों का गोद गहानैं‚
खेतों का बीचम बिणै बजानै।
नांगड़ि खुट्यां मा बुड़िया कानी‚
च्यापिंछ पीड़ै कैं क्ये नि चितानी।
पहाड़ा सैणियोंक तप और त्याग‚
आफि बणाय जैल आपोंण भाग।
स्वोचौ पहाड़क सैणियोंक ल्हिजी‚
जे आजि गों बटी गों में नि पूजी ॥”

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